Sunday 14 December, 2008

अब कौन बचाए नौकरी

दुनिया में हर दस सेकेंड में एक व्यक्ति को नौकरी से निकाला जा रहा है। दिसंबर माह में ही अब तक 1.15 लाख लोग नौकरी से हाथ धो चुके हैं। भारत में भी हालत बेहद खराब हैं। यह 1930 के बाद मंदी की सबसे बड़ी मार है। 1930 को हम मं से किसी ने नहीं देखा और न ही उस समय की मंदी के व्यापक फलक की जानकारी है लेकिन कहा जाता है कि उस समय कई लोग भूख से मर गए। विशेषज्ञ कह रहे हैं कि मंदी की यह महादशा अभी जारी रहेगी। तमाम कंपनियों से बिना किसी कायदे और कानून के कर्मचारी और मजदूरों को निकाला जा रहा है। मजा यह है कि कोई भी संगठन उद्योगपतियों की इस बेहिसाब कार्रवाई पर उनसे हिसाब मांगता नहीं दिख रहा है। आखिर इसका मतलब क्या है।याद कीजिए 1995 के आसपास के दिन। दुनिया और खासतौर पर भारत बदल रहा था। ग्लोबलाइजेशन की गूंज। ऐसी कि कुछ दूसरा सूझ ही नहीं रहा था। आस आदमी को भी लग रहा था कि उसकी तरक्की की राह रूकी पड़ी है। इसके कुछ सालों में ही हर देशवासी के पास आसानी से पैसे की आवक भी शुरू हो गई। आसानी से नौकरी मिलने लगीं। न ही सरकारी प्राइवेट ही सही। तनख्वाह मोटी हुईं और आम वर्ग भी सुविधा संपन्न की श्रेणी में आने लगा। देश में अमीरों की संख्या में बढ़त्तरी हुई। गरीबी कितनी बढ़ी किसी को दिलचस्पी की नहीं रही। ठीक यही वह समय था जब मजदूर और कर्मचारियों ने ट्रेड यूनियनों को अव्यवहारिक प्रतिगामी बताना शुरू कर दिया। उद्योगपति में उसे देवता नजर आने लगे। ट्रेड यूनियनों की मौजूदगी को बकवास करार दिया जाने लगा। इस स्थिति पर निर्णायक चोट की पूंजीपतियों की हितैषी सरकारों ने। ऐसे नियम और कायदे बनाए गए जिससे ट्रेड यूनियन सिकुड़ती गईं। कानून का सहारा लेकर ऐसी व्याख्याएं की गईं जिससे हड़ताल जैसे मौलिक अधिकार को गैरजरूरी और गैरकानूनी बताया गया। ट्रेड यूनियन के नेता न केवल हताश हुए बल्कि कई जगह उनकी उपस्थिति ही खत्म हो गई। ऐसे हालात में जाहिर है कि इस मंदी में आम आदमी की टूटती कमर पर अगर धन और मुनाफे के भूखे उद्योगपति वार कर रहे हैं तो उसे रोकने वाला कोई नहीं है। विरोध तो छोडि़ए कामगार इतना असंगठित और बिखरा हुआ है कि उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। किंकर्तव्यविमूढञ की स्थिति में बेकार होने के अलावा कोई चारा ही नहीं है। सरकार है कि पहले ही छंटनी के रास्ते साफ कर चुकी है। ऐसे में प्रशासनिक सुधार आयोग जिसका स्वर कहता है कि अगर बॉस खुश नहीं तो नौकरी की सलामती नहीं। प्रशासनिक सुधार आयोग नाकारा नौकरशाही पर कितना अंकुश लगा पाएगा पता नहीं लेकिन इससे कर्मचारी और खासतौर पर महिला कर्मचारी के शोषण का एक रास्ता जरूर खुल जाएगा।

Monday 8 December, 2008

हवा हो गई इंजीनियरिंग

भाई लोग कुछ ज्यादा ही सोच गए। इतना ज्यादा की सोशल से सरोकार ही नहीं रहा। अब सोशल यांत्रिकी की हवा निकल गई है, यह भाई लोगों की समझ में आ गया होगा। मध्यप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में हाथी को झूमाने की बात करने वाले बड़ी शेखी मार रहे थे। मध्यप्रदेश में दो माह तो जैसे उत्तरप्रदेश की पूरी सरकार ही उतार दी गई थी। शेखीखोरों में भी खूब ऊंची-ऊंची मारी। एक सबसे बड़े अखबार के बड़े रिपोर्टर ने तो मध्यप्रदेश के एक पूरे हिस्से में हाथी के झूमने के दावे कर डाले थे। सच्चाई सामने है। बसपा प्रदेश में वह नहीं कर सकी जिसके बूते बहनजी दिल्ली की बारी देख रही थीं। मैने लगभग दो माह पहले ही मायावती के सोशल इंजीनियरिंग का मध्यप्रदेश के चुनाव में होने वाले हश्र के बारे में इसी ब्लाग में लिखा था। तब मैने कहा था कि इसका बहुत बड़ा असर पड़ने नहीं जा रहा है। बात साफ है कि इस प्रदेश में दलित आज भी कांग्रेस से अपना जुड़ाव महसूस करता है। वही हुआ भ। मैं अपनी इस बात तो एक उदाहरण से समझाने की कोशिश करूंगा। मध्यप्रदेश का एक जिला है मुरैना। बीते चुनाव में इस इलाके में बसपा का खासा जोर रहा था। एक बार तो इस जिले की तीन सीटों पर बसपा ने कब्जा किया था। इस बार ग्वालियर और चंबल दो संभागों को मिलाकर बसपा चार सीटे ही जीत पाई है। मुरैना जिले की सबलगढञ सीट पर बसपा ने इस बार नौजवान चंद्रप्रकाश शर्मा को मौका दिया था। गणित भी ठीक था। इस सीट पर अगर दलित और ब्राह्मण मतदाता को जोड़ दिया जाए तो बसपा की जीत पक्की थी। मगर हुआ उलटा। बसपा इस सीट पर तीसरे नंबर पर रही। सीट गई कांग्रेस के उस प्रत्याशी के पास जिसे हमारे उस बड़े अखबार के बड़े पत्रकार कमजोर मान रहे थे। वोट का आंकड़ा भी अप्रत्याशित रहा। इसका कारण रहा दलित वोट का कांग्रेस के पाले में झुकाव। कमोवेश यही हाल जौरा का है। यहां बसपा जीती जरूर लेकिन सोशल इंजीनियरिंग की वजह से नहीं। इस सीट पर कुशवाहा समाज का बसपा का जबरदस्त समर्थन रहा। यही इस बार भी हुआ है। मध्यप्रदेश में बसपा ने इस चुनाव में सात सीटे जीती हैं। बसपा इसे अपनी बड़ी जीत मान रही है। हालांकि इतनी सीटे वह प्रदेश में पहले भी जीत चुकी है। यह आंकड़े उत्साहित करने वाले तो कतई नहीं हैं। मध्यप्रदेश की जनता ने एक बार फिर दिखा दिया है कि वह देखती सबकी है लेकिन करती हमेशा मन की है। उनके दिलों में राजनेता उत्तरप्रदेश की तरह जातीय विद्वेष की खटास और जीभ लपलपाती सत्ता का अंग होने की लिप्सा नहीं भर सके हैं। कह सकते हैं कि अभी बहन जी को और इंतजार करना होगा। वैसे भी जहां-जहां सपा है बस वहीं बसपा है। कारण बसपा और सपा को एक जैसी जमीन से ही राजनीति की खुराक मिलती है जो कमोवेश अभी मध्यप्रदेश में नहीं है।

Wednesday 3 December, 2008

मीडिया की यह कैसी जवाबदेही

आखिर अच्युतानंदन ने माफी मांग ली। इसके बाद शहीदों के सम्मान को क्षति पहुंचाने वाले उनके बयान की कहानी का यही अंत हो जाना चाहिए। मुंबई पर आतंकी हमले के बाद मीडिया खासकर विजुअल मीडिया ने जो संसार रहा है उसमें किसी को भी हीरो से जीरो और जीरो से हीरो बनाने की काफी गुंजाइश है। असल में इस हमले के बाद आवेग और उत्सुकता का जो स्पेस बनाया गया है उसमें ठहर कर सोचने का समय किसी के पास नहीं है। कम से कम दो मामले में विजुअल मीडिया की कवरेज जवाबदेही के घेरे में अवश्य खड़ी की जा सकने योग्य है। इसमें कोई शक और सुबहा नहीं कि भारतीय जांबाजों ने अपनी जान पर खेलकर आतंकियों से लोहा लिया। इस हमले में शहीदों के प्रति देशवासियों के दिलों में सम्मान की जो लहर उठी है उसका सुबूत हर ओर दिख रहा है। सवाल यह है कि क्या देशभक्ति का एकमात्र सुबूत जान देना ही है। अगर नहीं तो फिर यहां ठहरकर विचार करने की जरूरत है। अच्युतानंद छह दशक से भी अधिक समय से देश की राजनीति में सक्रिय हैं। आप उनकी विचारधारा से सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठा सकते। आज की पंक राजनीति के दौर में अच्युतानंद केरल सहित देश के उन चंद राजनेताओं में शुमार है, जिनका नाम सम्मान से लिया जाता है। वह देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले लोगों में शुमार रहे हैं। वह केरल के सीएम हैं। ऐसे में व्यक्ति का अपमान हुआ तो मीडिया ने क्या किया। जबकि आवेश में दिए गए बयान को लेकर उसने उनको खलनायक बना डाला। उनके बयान को तरीके से पेश किया गया मानो देश और देशवासियों के लिए इस व्यक्ति के दिल में कोई सम्मान नहीं है। जबकि देश की आजादी के लिए कई बार जेल जा चुके इस शख्स ने केरल के किसानों और मजदूरों के सम्मान और बेहतरी के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। इस मामले में मीडिया ने जो भी किया उससे तो यही लगता है कि लोकतंत्र बहुत बुरी चीज है और इससे अच्छा मिलिट्री राज है। मगर जरा ठहरिए, मिलिट्री के मायने और उनकी देशभक्ति क्या दुश्मन की गोली के मायने और उनकी देशभक्ति क्या दुश्मन की गोली खाकर मर जाना है। क्या पूर्वोतर राज्यों और जम्मू में मिलिट्री को लेकर सालों से जो सवाल खड़े किए जा रहे है वह भी क्या देशभक्ति की श्रेणी में आता है। सेवा के विभिन्न घटकों में फैले भ्रष्टाचार से हम अनजान हैं। ऐसे में मैनपुरी के लेफ्टीनेंट चौहान को याद करना चाहिए, जो अपने ही साथियों के बुने जाल में 18 साल तक उलझे रहे। इस देश में न जाने ऐसे कितने चौहान होंगे और अगर गोली खाकर मरना ही देशभक्ति है तो फिर अकेले उन्नीकृष्णन ही क्यों गजेंद्र ने भी सीने में गोली खाई। क्या गजेंद्र को लेकर मीडिया उतनी ही सजग दिखाई दी जितनी उन्नीकृष्णन को लेकर। असल में यह मध्यमवर्गी सोच है, जो हर मसले का हल दूसरे को गाली देकर ही ढूंढना चाहती है। इस मामले में मीडिया का जो रुख रहा वह लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालने जैसा है। यह हिटलरशाही का प्रतीक भी है। अच्युतानंद ने जो बात कही उसको समझने की कोशिश तक नहीं की गई। उनके जिस शब्द को लेकर आलोचना हो रही है, वह तो उन्होंने खुद के लिए कहा था।एक क्षण के लिए अच्युतानंद को छोड़कर रामगोपाल वर्मा उर्फ रामू के मसले पर लौटते हैं। अभी तक एक भी सुबूत ऐसा नहीं पेश किया गया है जिससे यह लगे कि रामू ताज में अपनी किसी फिल्म का लोकेशन देखने गए थे। इसके बावजूद मीडिया ने रामू के विरोध में पूरे बालीवुड को खड़ा कर दिया। उनका दोष क्या केवल इतना भर नहीं है कि महाराष्ट्र के मुखिया उनसे परिचित है। अन्य लोगों की तरह वह ताज में आतंक के बाकी बचे निशान को देखने गए थे। मगर मीडिया को सनसनी की जरूरत थी सो उसने फैला दी। असल में विजुअल मीडिया का दर्द यह है कि ताज में आपरेशन खत्म होने के बाद होटल के दरवाजे उनके लिए नहीं खोले गए। इससे उनको ऐसे विजुअल नहीं मिले जिनके सहारे वह अपने चैनल की टीआरपी बढ़ा सकते थे। इसलिए इन चैनलों ने सनसनी क्रिएट करने का दूसरा तरीका अख्तियार कर लिया और नतीजा हमारे सामने है।देश के इस सबसे संकट के क्षण में विजुआल मीडिया का रुख बेहद गैरजिम्मेदाराना रहा है। उनके रिपोर्टरों और एंकरों में वैसी गंभीरता नहीं दिखाई दी, जैसी इस क्षण में अपेक्षित थी। उनमें जानकारी का भी बेहद अभाव था। इस हमले को लेकर नेताओं के लिए इस्तेमाल की गई शब्दावली और पूरी घटना को हाइप बनाने के उनके प्रयास यह साबित करते हैं कि विजुअल मीडिया के लिए अगर सबसे ऊपर कोई चीज है, तो वह सिर्फ सनसनी है।

Thursday 24 July, 2008

सोमनाथ के बहाने


सोमनाथ चटर्जी के साथ जो हुआ उसने एक नई बहस को जन्म दिया है। मजे की बात यह है कि यह बहस उस पार्टी के अंदर नहीं चल रही है जिससे सोम संबंध रखते हैं (थे), बल्कि पार्टी के बाहर सोमनाथ दा के तमाम हितैषी एकाएक खड़े हो गए हैं। इनमें से अधिकांश अखबार वाले हैं और ये वही लोग हैं जो सुप्रीम कोर्ट से सोम दा के टकराव पर उनकी चुटकी लेते दिखाई देने लगे थे। सवाल उठता है कि उन लोगों को अचानक उनमें मासूमियत क्यों दिखाई देने लगी है। एकाएक सोमनाथ चटर्जी या स्पीकर उनके लिए सोम दा कैसे हो गए। किसी भी पार्टी द्वारा उसके सदस्य पर की गई कार्रवाई पार्टी का आंतरिक मामला होता है। सोमनाथ के मामले में अखबार और चैनल क्यों अधिक स्यापा करते नजर आ रहे हैं। कहीं यह एक पार्टी और उसके वैचारिक सिद्धांत को बदनाम करने की सोची समझी चाल तो नहीं। मीडिया का ऐसा ही कुछ रुप नेपाल में राजतंत्र की समाप्ति और कम्युनिस्टों की बढ़ती ताकत पर दिखाई दिया। तब लगा जैसे नेपाल में राजतंत्र का खत्म होना घोर पाप कर्म है और उसको करने वाले प्रचंड और उनके साथी पापी। मजे की बात यह देखो कि जब नेपाल में राजतंत्र के विरोध की बात होती है तो उसका श्रेय नेपाली कांग्रेस को दिया जाता है और जब राजा के अधिकार को खत्म करने की बात होती है तो उसका दोष प्रचंड पर मढ़ा जाता है। यानी कि मीठा-मीठा गप्प और कड़वा थू। खैर शायद में भटक रहा हूं मगर मुझे लगता है कि इन दोनों ही मामलों में मीडिया का कर्म तटस्थता या कहें दोनो पक्षों को समानता देने का नहीं रहा है। क्रांतिकारी सोमनाथ ने अपने कामकाज से आम आदमी के दिल में जो जगह बनाई है उसे सभी जानते हैं। सुप्रीम कोर्ट से टकराव के मामले में तो वह हीरो की तरह ही उभरे। जनता में उपजी इस सहानुभूति को माकपा को बदनाम करने के हथियार के रूप में तो नहीं किया जा रहा है। क्या यह अखबार और चैनल में बैठे माकपा विरोध की बुर्जुआ मानसिकता नहीं है। अगर नहीं तो फिर एक घटना को याद कीजिए। भाजपा ने अपने वरिष्ट साथी मदन लाल खुराना को पार्टी से निष्कासित किया। खुराना पार्टी के प्रति निष्टावान रहे। सोम दा की तरह वह भी काफी पुराने कार्यकर्ता थे। तक किसी अखबार या चैनल ने इस तरह की लाइन क्यों नहीं लिखी कि 40 सालों का साथ भूला दिया। सोमनाथ पर कार्रवाई उनका जन्मदिन देखकर तो पार्टी ने नहीं की होगी फिर क्यों उनके समाचार में जन्मदिन की संवेदनाओं को उभारने की कोशिश की गई। लगभग सभी अखबार और चैनल ने यह किया तो क्या सोम दा के सहारे माकपा को खलनायक बनाने का खेल खेला जा रहा है। सोमनाथ से इस्तीफे के लिए माकपा के अंदर का मामला है। वह सदन के लिए स्पीकर हो सकते हैं लेकिन पार्टी के लिए तो वह कार्यकर्ता ही हैं। इसे सोमनाथ के पद से जोड़कर क्यों देखा जा रहा है। पार्टी अपने कार्यकर्ता को निर्देश दे सकती है। यह कार्यकर्ता पर है वह माने न माने। फिर पार्टी को तय करना होता है कि कार्यकर्ता के खिलाफ क्या किया जाए। और अंत में यह कि विरोध करने वालों को पहले माकपा के सांगठनिक ढांचे की समझ होना चाहिए। यह कोई लालू या मुलायम का दल नहीं है जहां व्यक्ति की श्रेष्ठता का सवाल हो। पार्टी की सैद्धांतिक सोच पर व्यक्ति की सोच हावी नहीं हो सकती है। माकपा इससे पहले भी पार्टी के वरिष्ठ लोगों के खिलाफ अनुशासन की कार्रवाई और उन्हें पार्टी लाईन पर चलने के निर्देश देती रही है। ज्योति बसु को इसी पार्टी नेतृत्व ने प्रधानमंत्री न बनने को कहा था तब ज्योति बसु ने न चाहते हुए भी निर्देश माना था।

Wednesday 9 July, 2008

अब ब्राह्मणों की बारी

इस बार आरक्षण की मुहिम दक्षिण भारत से उठी है। लक्ष्य है इस मुद्दे पर देश भर के ब्राह्मणों को एकजुट करना। इसकी कमान संभाली है दक्षिण भारत के छोटे से गांव के अय्यर परिवार ने। पिता-पुत्र दोनों ही इन दिनों ब्राह्मणों की राय लेने के लिए उत्तरप्रदेश के दौरे पर हैं। वह अब तक कई जिलों में घूमकर आधा सैकड़ा से अधिक बैठकों में रायशुमारी कर चुके हैं। इसके साथ ही देश भर में कितने तरह के ब्राह्मण हैं इसका भी लेखाजोखा तैयार किया जा रहा है।कर्नाटक के बैंगलोर में रहने वाले एम एस शंकर अय्यर और उनके पिता एमएस मनी अय्यर इन दिनों उत्तर प्रदेश के दौरे पर हैं। यह अय्यर पिता-पुत्र कभी केरल के पालघाट का निवासी था। यह वही गांव है जहां से एक तेज तर्रार मुख्य चुनाव आयुक्त थे। अय्यर अयंगर ब्राह्मण होते हैं। इनकी केरल में मजबूत लॉबी है। कर्नाटक में बस चुके यह लोग कर्नाटक ब्राह्मण सभा से जुड़े हैं। पुत्र एक प्रतिष्ठित कंप्यूटर साफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत है।अय्यर पिता-पुत्र अब तक प्रदेश के 35 से अधिक जिलों का दौरा कर ब्राह्मणों में आरक्षण की आग सुलगा चुके हैं। पहली बार मिलने पर अय्यर किसी को यही बताते हैं कि वह देश भर में कितने तरह के ब्राह्मण हैं यह जानने को निकले हैं। बातों का सिलसिला आगे बढ़ता है तो फिर आरक्षण की बात खुलकर कहते हैं। यह भी कहते हैं कि देश भर में ब्राह्मणों की दशा का अध्ययन करने के बाद इंटरनेट पर ब्लॉग जैसा कुछ करना है। हालांकि अभी इसकी रुपरेखा तय नहीं है। किसी भी शहर में यह दो या फिर तीन दिन रुकते हैं। लोगों से व्यक्तिगत बातें करते हैं और बातों का यह सिलसिला अपनों में फैलाने का संदेश भी देते हैं। बात मतलब की होती है सो तेजी से शहर के ब्राह्मण आगंतुकों से मिलते हैं। फिर अगले दिन बैठक बुला ली जाती है। इन बैठकों में बकायदा मोरचा बनाने और शहर में कमेटी गठित करने की बात होती है। बातों का लब्बोलुबाब आरक्षण ही होता है। बकौल शंकर अय्यर अब तक वह प्रदेश के 35 जिलों का दौरा कर चुके हैं। वह अपनी बात पहले छोटे शहरों के लोगों में फैले सजातीयों तक पहुंचा रहे हैं। इसके साथ ही दिसंबर की 15, 16, 17 को बंगलौर में होने वाले कर्नाटक ब्राह्मण सभा के सम्मेलन में भी आने का बुलावा दे रहे हैं। उनके मुताबिक लोग उनकी बात सुन रहे हैं। कमेटी बनाने को लेकर उत्साह देखने को मिल रहा है। मणि के मुताबिक इस प्रदेश के लोग उन्हें ध्यान से सुन रहे हैं इससे उनका हौसला बढ़ा है।

Friday 20 June, 2008

वाह गोविंदाचार्य आह गोविंदाचार्य

पतंजलि योग पीठ में गंगा बचाओ अभियान के लिए संत रामदेव की अगुवाई में हुई मंत्रणा में गोविंदाचार्य ने जो कुछ कहा उसे समझना होगा। गोविंदाचार्य ने विहिप की इस मसले में दोहरी नीति से खिन्न होकर इस तरह टिप्पणी की। सांस्कृतिक मामलों को सियासी नजरिए से हल नहीं किया जा सकता। गोविंदाचार्य को यह बात राममंदिर के समय समझ में क्यों नहीं आई। लगता है भाजपा से दूरी और विहिप-आरएसएस से वनवास ने उनका बुद्धत्व जगा दिया है। सच ही तो है कि सांस्कृतिक मसले सियासी नजरिए से हल नहीं होते। बात यह उठती है कि आखिर उन्होंने धर्म की जगह संस्कृति शब्द को क्यों चुना। हम में से अधिकांश को याद होगा कि 1990 के उन झंझावाती समय में जब हिंदु मुसलमान को दो संस्कृति न मानकर यही संगठन और गोविंदाचार्य धर्म मानने और मनवाने पर उतारू थे। दरअसल तब उनका मकसद धर्म शब्द से हल होता था। आज धर्म शब्द राजनीति में चुक चूका है। सो जानबूझकर सांस्कृतिक शब्द उठाया गया है। संस्कृति मनुष्य की सामाजिक और सार्वजनिक चेतनाहै। संस्कृति के निर्माण में धर्म से अधिक स्मृति का अंशदान और योगदान होता है।भारतीय संस्कृति को संस्कृति की इसी परंपरा ने जिंदा रखा है। धर्म और धर्म के स्वरूप,सिद्धांत और उनकी व्यख्याएं आती जाती रहती हैं। सभ्यता और संस्कृति का अधिकांश स्मृति और उसकी मानवीय चिताओं के यथार्थ और उसके सपनों से ही निर्मित होता है। कोई भी संस्कृति हो उसकी धमनियों में सांस्कृतिक स्मृति का रक्त ही प्रवाहित होता है। भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है मुसलमान। इस बात को आरएसएस और विहिप जानते हुए भी भुलाए रहती है। शायद ऐसा करने में ही उसकी भलाई या विवशता है। इस विवशता का मूल कारण है भारतीय मानस का चिंतन। उसने कभी भी अलगाववादियों को इसकी इजाजत नहीं दी। इसलिए गोविंदाचार्य ने बड़ी सफाई से सांस्कृतिक शब्द जोड़ा है। इस सफाई को चतुराई ही कहिए। गोविंदाचार्य भी आखिर उसी विहिप और आरएसएस की कोख की उपज हैं जिसके मास्टरमाइंड इन दिनों आडवाणी को साफ्ट चेहरा साबित करने में जुटे हैं। यह मुहिम है आडवाणी को भारत की कुर्सी दिलाने की। इसलिए सभी साफ्ट हैं मगर विवशता में।यह नहीं तो फिर जिस गंगा बचाओ अभियान में सभी धर्म और पंथ के संगठनों को जोड़ा गया, जिसमें अलग रास्तों पर चलने वाले लोग भी शामिल हैं, उसमें किसी अगुवा मुस्लिम संगठन को क्यों शामिल नहीं किया गया। गोविंदाचार्य बताएं कि क्या इससे ही उनका गंगा अभियान अपवित्र हो जाता और क्या वह हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं।

Saturday 7 June, 2008

शब्दों को खाता बाजार

बाजार की ताकत केवल व्यक्ति को ही नहीं बदलती है,शब्दों को भी खा जाती है। यह ताकत केवल उपभोक्ता सोच को नियंत्रित करत है ऐसा नहीं है। इससे न केवल सामाजिक चेतना डोलती है बल्कि कई मामलों में यह बदलाव भाषा के स्तर पर भी होता है। बाजार की ताकत शब्दों को भी कमजोर करने की साजिश रचती है।कल तक एक शब्द मध्यम और निम्न वर्ग के घर-घर में बोला जाता था। वह था लट्टू, बल्ब। सीएलएफ की ताकत के सामने आज यह शब्द निस्तेज हो गया है हो रहा है। आमतौर पर अब यह शब्द बहुत कम सुनने को मिलता है। उस मध्यम वर्ग के मुंह से भी नहीं जिसके घर के अंधेरे को दूर करने के लिए यह लंबे समय तक उजाले का प्रतिनिधि रहा। बाजार की ताकत मैं यह शब्द धीरे-धीरे खो रहा है। ठीक वैसे ही जैसे कभी चवन्नी खोई थी। हाल ही में अठन्नी ने अपना दाम खो दिया है। तो केवल शब्दों को ही नहीं मुद्रा का मूल्य बाजार का जाता है। इसे क्रिया को कई बार स्थानीय कारोबारी भी नियंत्रित या फिर अवमूल्यित करते हैं लेकिन शब्दों के मामले में यह किसकी साजिश है। जाहिर है कि बाजार की ताकत से व्यक्ति, समाज और संस्था ही नहीं शब्दों को भी खतरा है।

Friday 2 May, 2008

संपत पाल

हमारे देश के कम्यूनिस्टों को उत्तरप्रदेश के बांदा जनपद के गांव नरैनी की संपत पाल से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। जरूरत है काम के स्तर पर उन्हें समझने और संगठन के स्तर पर उनकी दिशा को जानने की। संपत पाल बीत दो साल में इस क्षेत्र में एक ऐसा नाम बनकर उभरा है जो समर्थक है वंचितों की जो विश्वास हैं उनका जिन्हें समाज से दुत्कार के अलावा कुछ नहीं मिला। संपत पाल ने देखते ही देखते अपने पीछे दस हजार से भी अधिक ऐसी महिलाओं की फौज खड़ी कर ली है जो एक आवाज पर अपनी जान तक दे सकती हैं। संपत की इस ताकत का ही फल है कि आज प्रदेश सरकार के आका उन्हें नक्सली साबित कराने की बैसिर पैर की कोशिशों में लगे हुए हैं।
संपत पाल से जो एक चीज सीखने की जरूरत है वह है संगठन खड़ा करने की उनकी ताकत। संपत के विचार न केवल दलित समर्थक हैं बल्कि उनका रूप रंग और बात करने का ढंग उन्हें दलितों के साथ खड़ा करता है। यही एक खूबी है कि संपत आज बांदा इलाके के दलितों के सर्वाधिक करीब हैं। मुझे याद है वह समय जब मैं कानपुर मैं तैनात था। हमारे साथी बांदा से संपत पाल की गतिविधियों की खबर देते रहते थे। तब संपत और उनके साथी राशन वितरण प्रणाली में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ जूझ रहा था। इन दो सालों में संपत की ताकत कहां से कहां पहुंच गई है। सांप्रदायिकता से लड़ने के बेवकूफी भरे तर्क और कथनी करनी में अंतर रखने वाले देश के कम्यूनिस्टों को संपत से दीक्षा लेने की जरूरत है।
दीक्षा इस बात की कि वह जाने की वंचितों के बीच विश्वास कैसे हासिल किया जाता है। दलित और पिछड़ों को अनपढ़ कहकर उनके दिमाग में सही बात नहीं आती यह तर्क देने वालों को संपत के सानिध्य में कम से कम दो दिन गुजारने की जरुरत है। पीड़ा की भाषा और उसके कारक को भला कौन नहीं जानता है। जानवर भी अपने दुश्मन और दोस्त की पहचान जानता है फिर भला दलितों को यह समझ क्यों नहीं हो सकती। कम्यूनिस्टों जो देश में पिछले सौ साल से अपनी गतिविधियों को संचालित कर रहे हैं उन्हें बंगाल को छोड़कर कहीं बड़ी स्वीकार्यता नहीं मिली है। इसके पीछे वे न समझ आने वाले कारण भी गिनाते हैं। तर्क यह कि उनकी सही बातें देश के लोगों को समझने में देर लगेगी कि सांप्रदायिकता के जहर ने लोगों की बुद्धि पर पर्दा डाल दिया है आदि, आदि। इन लोगों को यह समझना चाहिए कि जो संपत के साथ खड़े है वह बहुत बड़े बुद्धिजीवी नहीं हैं और न ही वह लोग नास्तिक हैं फिर उन्हें शोषण की भाषा और उसके विरोध की केमेस्ट्री अच्छी तरह आती है। वह जानते हैं कि संपत की नीयत बेहद साफ है। भले ही उत्तरप्रदेश की पुलिस को वह कुछ भी लगे। वैसे संपत के साथ प्रदेश की पुलिस कुछ वैसा ही कर रही है जो कभी अमेरिकी सरकार ने ओशो के साथ किया है। जो आप के साथ नहीं खड़ा है उसे मिटा दो।

Monday 7 April, 2008

रिश्ते और मैं

कभी हो नहीं सके विलेय,
जैसे घुलती है हवा,
सासों के साथ लहू में,
आवाज खोती हैं लहरें,
जैसे किनारों से टकराकर,
मैं खो नहीं सका ऐसे, रिश्तों के भंवर में।
रिश्ते, जो बुलाते हैं आज भी
लिए हाथों में शर्तों की लंबी फेहरिस्त,
कि तुम मानोगे इसे,
अपने सारे निज को भूलकर,
कि तुम्हारी मान्यताएं और तुम,
बंध सको उनके बंधनवार में,
तो आओ, स्वागत है तुम्हारा
एक अजब से खेल में।

मेरी कशिश

मेरी कशिश
उस दुनिया में,
नहीं पहुंच पाती,
हमारी साधारण नजर।
जहां ऊपर और ऊपर,
उठने के लिए,
बिछाई जाती हैं,
दधीचि पटरियां।
होकर सवार जिन पर,
पाते हैं वे अपनी मंजिल।
अपने नुकीले डंकों से,
चूसते हैं हमारा लहू,
शिराओं में दौड़ता खूं,
अचानक, हो उठता है कसैला,
हरकत में आता है समूचा बदन,
कशमशाकर ठंडा पड़ने के लिए।
ऐसे दमघोंटू माहौल में,
उधार की एड़ियों के सहारे,
तोड़ लेना चाहता हूं तारे।।

मेरा सपना
मैं आखिर चाहता क्या हूं.
नीले फूल, पीली घाटियां,
भरा हुआ पूल या लहलहाती बालियां।
चलता हूं, घूमता हूं,इनसे गुजरता हूं,
चितकबरे रास्तों से होता हुआ।
हरेक कदम जीत का,कदम बोसा बनता हुआ।
धुआं सा तैरता है,
गर्व करता रहा,
अपनी उस सोच पर,
जिसकी कुकरमुत्ते जैसी शाख पर,
सवार होकर,
जीत लेना चाहता हूं दुनिया।
सोचता हूं,
जीतने में वह सुख नहीं,
जो पूल में सिर डालकर,
पैरों को थका डालने में हैं,
जीतने में मैं उसका,
सब हरण कर लेता हूं।
सपना, अपना,
और मेरे साथ होता है,
हारे हुए का शव,
क्या मैं शव का साथ चाहता हूं।
नहीं,फिर भी लुभाती है,
फिर-फिर लुभाती है,
हवा की रवानी में,
उड़ती रंग-बिरंगी,
तितलियां और थिरकते मोर।।

Tuesday 1 April, 2008

मप्र की माया

अहम् बरअहम् अम्बेडकर मध्यप्रदेश के ब्राह्मणों मैं एन दिनों अजीब अकुलाहट है। ख़ुद को सबसे बड़ा अम्बेडकर बड़ी साबित करने की होड़। अकेला ब्रह्मण ही क्यों पुरा सवर्ण वर्ग ही एस दोड मैं सामिल है, ब्रह्मण कुछ ज्यादा। उप मैं जब से मायावती का सोशल फार्मूला हित हुआ है , तमाम प्रदेशों का भाईचारा राजनितिक गदिंत के एस अब्सर को लपक लेने की फिराक मैं है। मप इससे अछुता नही है। मप के कस्बों की दिबरे एन दिनों माया और उनके भाईचारा गन मैं रंगी हुई हैं ।मायावती को सामाजिक सद्भाव का देवदूत बताते यह संदेश स्वरण वर्ग को सत्ता के गलियारे तक पहुँचने के लिए सुनहरे रस्ते नजर आ रहा है। जातिवादी सम्मेलन मैं भीड़ का उन्माद to देखते ही बनता है । पंडितों के बीच रातों रात नए नेता प्रगट हो गए । यह वो लोग थे जो कभी अपने कसबे और शहर मैं छोटी-मोटी राजनीत किया करते हैं । इनके पास पैसे की ताकत है और मायावती उन्हें एक अब्सर दिखाती दे रही है । इन लोगों के बीच आज एक बात नारे की तरह प्रचलित हो रही है । अहम् ब्रह्म अम्बेडकर । सबसे बडा अम्बेडकरवादी होने का दिखावा । सबसे बडा दलित होने की खव्हिश । इनमें से बहुत कम को ही अम्बेडकर और उनके सिधान्तो से कोई लेना देना हो। बहुतेरे तो इस सबसे वास्ता ही नही रखते। उनके लिए अम्बेडकर होने का मतलब है दलितों के साथ उठाना बैठना और उनके हितैषी होने का ढोंग करना। उनके लिए दलित एक वोट बैंक है जो जातीयता के इस उन्मादी युग मैं उनकी जात के सत्ता तक पहुँचने की उनकी क्वाहिश को पूरा कर सकता है। मध्यप्रदेश के जातिगत आंकडो की बात करें तो यहाँ ब्रह्मण के सिथति यूपी से अलग है। प्रदेश की ३०० से अधिक विधानसभा मैं ३० फीसदी भी एसी नही हैं जहाँ ब्रह्मण अकेले अपने दम पर कोई सीट जीता सके। प्रदेश के उत्तर-पछिम इलाके मैं अनुसूचित और पिछड़ा वर्ग की संख्या अधिक है । बसपा इस इलाके मैं अपनी उपस्थिति दर्ग करती आ रही है। उसकी असली पहचान तो जनजातीय छेत्र मैं होनी है । यहाँ अभी तक जनजातीय वर्ग का कांग्रेस से मोह नही टुटा है । इस इलाके मैं ब्रह्मण एस हालत मैं नही है की वः माया के वोट बैंक से मिलकर उसे सत्ता तक पहुँचा सके । इसे मैं मध्यप्रदेश मैं माया अकेले ब्राह्मणों के बूते नही रह सकती हैं । सम्भव है की वः अपना प्रतिनिधि इलाके के बहुसंख्यक वर्ग से ही चुने । यह ब्रह्मण , ठाकुर ,बनिया या फिर कोई भी हो सकता है । यूपी मैं उनहोने इस फार्मूले को अपनाने का मन तभी बना लिया था जब भाजपा ने दूसरी बार उनकी सरकार गिराई थी । माया और उनके साथियों ने तभी सीधे जनता के बीच जाकर गठबंधन करने की बात कही थी। इस अब्सर को वहाँ ब्राह्मणों ने पहले पकड़ा । यूपी के ब्राह्मणों का मध्य प्रदेश मैं सम्बन्ध हैं । रोटी बेटी के सम्बन्ध। सत्ता के इस खेल मैं इन संबंधों के जरिये भी अवसर लपकने की कवायद चल रही है इस मामले मैं मध्यप्रदेश के सामाजिक कार्यकर्त्ता और राजनीत मैं दखल रखने वाले मेरे एक मित्र की टिप्पणी मायने रखती है। जब इस से मायावती के इस जादू के बारे मैं पूछा टू उसका कहना था की प्रदेश मैं इन दिनों सभी पंडितो मी ख़ुद को सबसे बड़ा दलित साबित करने की होड़ लगी हुई है । जब की मेरे मित्र का कहना था की मायाबती की पार्टी को मप मैं यूपी सी सफलता नही मिलने वाली है । वह इसके कारण भी गिनता है । पहला तो यह की यूपी का ब्रह्मण ख़ुद को ठगा महसूस कर रहा था । उसे न तो बीजेपी मैं जमीन दिख रही थी और न ही यादवों के बीच सम्मान । उन्हें ये सम्मान दलितों मैं दिखाई दिया । मप के ब्राह्मणों के सामने इस तरह के हालत नही हैं । यहाँ जातीय उन्माद की हालत भी वैसी नही है। तीसरे प्रदेश का वोटर अभी दो पार्टियों से इतर विकल्प की तलाश मैं नही है । मायावती के सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला भले ही उन्हें मप की सत्ता न दिला पाई लेकिन इतना तय है की उसने इस प्रदेश की उच्च जाती के मुंच और पूँछ के बल खोल दिए हैं । जातिवाद के उन्मादी अब बेशर्म तरीके से ही ख़ुद को बडा कह सकते हैं । माया के जातिवादी राजनेतिक घोल ने वो कर दिखाया है जो कभी अम्बेडकर और बुध नही कर सके । सत्ता की सस्ती डगर पर चलने को आतुर सवर्ण जाती के दिग्गजों के बीच आज ख़ुद को सबसे बड़ा अम्बेडकरवादी साबित करने की होड़ लगी हुई है । यह सामाजिक बदलाव है । कल तक जिसे अचुत मन आज उसकी बराबरी करने की आतुरता। यह सत्ता का जादू हो सकता है लेकिन इस जादू ने जातीय दर्प की सच्चाई की पोल तो खोल ही दी है।

Tuesday 11 March, 2008

वो दिन था




वो दिन था , वो समय था ,
हम थे और तुम थे ,
और था एक अजीब सा अहसास ,
और आज वो समय बीत चुका है ,
अब न हम है , और न तुम हो
और न ही है वो अहसास,
सोचता हूँ तो खोजाता हूँ उस समय मैं,
क्या वो समय फिर लौट कर वापस आयेगा ,
जिस समय को हम पल -पल जिया करते थे ,
बस अब एक ही तमन्ना है . की कास वो समय आए .
और उस समय मी हम और तुम फिर समाये .
इसे मजाक न समझना ये दिल की आवाज है
आपका प्रवीण

Wednesday 27 February, 2008

गाली का संगीत

वैसे बुरी नहीं है गाली। इसका अपना ही संगीत है अपनी ताल। यह तो सुनने वाले पर है की वह कितने सप्तक गह सकता है, झेल लेता है समझ सकता है। पहले बात गाली के संगीत की। गा - ली यानी जिसे गाया जा सकता हो और उसमे संगीत , धुन न हो भला कैसे संभव है। तो गाली और संगीत में वही है जो ताल और लात में। ताल बिन संगीत कैसा और लात बिना गाली का मजा आ ही नहीं सकता। ताल में बस शब्द बदलिए और देखिए चमत्कार लात हाजिर। तो शुरू रहिये ताल और लात के सुखद समायोजन में। भगवान आप का भला करेगा। जीवन को ताल दे न दे लात जरूर देगा।

Monday 25 February, 2008

बदलो हथियार

तो जरूरी चीज हैं ताकत। लड़ सकने की ichachha का स्केल। सवाल यह हैं कि हमारी ladai क्या हैं और उसके औजार क्या होंगे । उसके निशाने पर कौन हैं। न न न ..... यह नहीं कह सकते हैं कि हम नहीं लड़ते। नहीं लड़ते तो यह गाली गलौज क्यों, यह गुस्सा क्यों, यह भड़ास क्यों। तो हमारे हथियार कुछ भी हो सकते हैं लेकिन गाली गलौज तो कतई नही। chuk जाने कि निशानी हैं गाली। अपने ही पर खीजने का क्रोध तत्त्व। चलो, गाली भी दिए देते हैं लेकिन क्या उससे गाली देने वाले का कुछ नहीं jata हैं। गाली देते हुए वह कहीं गहरे छिजता नहीं, खाली नहीं होता इस प्रक्रिया में एक बड़ी चीज जाती हैं और वह हैं उर्जा , गुस्से की taap। इसी ताप को तो बचाने की जरूरत है। आख़िर इसी ताप का तो संग्रह हमारी ताकत में ढलता है। एक मानसिक दृढ़ता , हमले सहने की क्षमता इसी ताप से पैदा होती है। तो हम गाली गलौज नहीं करेंगे। इसका कोई यह मतलब कदापि न लगाएं की हमें गाली नहीं आती, कि हम बचाव के रास्ते तलाश रहें हैं, कि हम लड़ना नहीं चाहते। हम लडेंगे, उन सभी सवालों से जिनके कश्मकश से आप हम यहाँ हैं, लेकिन हमारी धारणा पलायन की कतई नहीं है। हम व्यूह में रहकर उसके पेंच खोलने कि कला सीखना चाहते हैं। इसके लिए जरूरी है कि सहने की ताकत। हम जानते हैं कि कुछ लोग इस पर टिप्पणी भी देंगे कि ................ में घुसे तुम्हारी फिलासफी तुमसे किसने कहा कि यहाँ आकर .......... मराओ । जान लीजिये - मैं बीहडी हूँ। मुरैना से लेकर औरैया तक मैंने चम्बल के बीहड़ को देखा है, उनमे घूमा हूँ, रातें बिताई है, उन्हें जिया है। इसलिए लड़ने कि कला मुझे आती है। यह बानी कि रवानी है। मगर वैसे नहीं जैसे कुछ लोग ब्लॉग पर लीद कर रहें हैं। इस तरह हगने का क्या फायदा। अपने ही आप पीठ ठोकना और इस अकड़ से घूमना कि हम किसी कि नहीं मानते। ........... तो घूमिये जनाब। मगर जरा ठहर जाइए, आप में से कई मेरे अग्रज हैं । वे भी जानते हैं कि बदलाव ऐसे नहीं आते मगर वह इसे स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। या फिर यह कहें कि कुंठित मन उनको ऐसा करने से रोकता है। सो कुंठा में तो गालियाँ ही निकलेंगी। अगर 'पाश' की कविता में कहें ---- ओ, अपनी प्रेमिकाओं को प्रेम पत्र लिखने वालों, अगर तुम्हारी कलम की नोंक बांझ है तो कृपया कागजों पर गर्भपात न करें ।

Thursday 21 February, 2008

कुछ अपने बारे में

लो, मैं हाजिर हूँ। बहुत दिन से कोशिश कर रहा था आपके बीच आने की। यह तकनीकि ज्ञान की कमी थी जिसने अब तक मुझे रोके रखा। कोशिश रंग लाई और में बनने में सफल रहा। कुकुरमुत्ता की तरह मैं आपके बीच उग आया हूँ। न न न... साधारण चीज नही है कुकुरमुत्ता, जीवन की शक्ति है, पत्थर का सीना फाड़ने की ताकत है कुकुरमुत्ता। निराला का प्रिय विषय है कुकुरमुत्ता। मैं ऐसा कोई दावा नही करता। मेरी पत्रकारिता की यात्रा में मेरे ऊपर दो यशवंत का असर है। पहले यशवंत व्यास और दूसरे यशवंत सिंह । व्यास जी मुझे जयपुर में मिले, तब मैं दैनिक भास्कर में था और व्यास जी दैनिक नवज्योति के संपादक थे। यशवंत सिंह मेरे लिए एक मायने में द्रोणाचार्य है। उन्ही की हस्तलिपि से मैं पेज मेकिंग सीख सका। शायद ये बात यशवंत सिंह को भी नही मालूम । मैं जब अमर उजाला कानपुर पहुँचा वे जा चुके थे। मिला उनका लिखा एक कागज । कैसे सीखें पेज बनाना । यहाँ बस इतना ही बाकी फ़िर कभी।