Wednesday 3 December, 2008

मीडिया की यह कैसी जवाबदेही

आखिर अच्युतानंदन ने माफी मांग ली। इसके बाद शहीदों के सम्मान को क्षति पहुंचाने वाले उनके बयान की कहानी का यही अंत हो जाना चाहिए। मुंबई पर आतंकी हमले के बाद मीडिया खासकर विजुअल मीडिया ने जो संसार रहा है उसमें किसी को भी हीरो से जीरो और जीरो से हीरो बनाने की काफी गुंजाइश है। असल में इस हमले के बाद आवेग और उत्सुकता का जो स्पेस बनाया गया है उसमें ठहर कर सोचने का समय किसी के पास नहीं है। कम से कम दो मामले में विजुअल मीडिया की कवरेज जवाबदेही के घेरे में अवश्य खड़ी की जा सकने योग्य है। इसमें कोई शक और सुबहा नहीं कि भारतीय जांबाजों ने अपनी जान पर खेलकर आतंकियों से लोहा लिया। इस हमले में शहीदों के प्रति देशवासियों के दिलों में सम्मान की जो लहर उठी है उसका सुबूत हर ओर दिख रहा है। सवाल यह है कि क्या देशभक्ति का एकमात्र सुबूत जान देना ही है। अगर नहीं तो फिर यहां ठहरकर विचार करने की जरूरत है। अच्युतानंद छह दशक से भी अधिक समय से देश की राजनीति में सक्रिय हैं। आप उनकी विचारधारा से सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठा सकते। आज की पंक राजनीति के दौर में अच्युतानंद केरल सहित देश के उन चंद राजनेताओं में शुमार है, जिनका नाम सम्मान से लिया जाता है। वह देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले लोगों में शुमार रहे हैं। वह केरल के सीएम हैं। ऐसे में व्यक्ति का अपमान हुआ तो मीडिया ने क्या किया। जबकि आवेश में दिए गए बयान को लेकर उसने उनको खलनायक बना डाला। उनके बयान को तरीके से पेश किया गया मानो देश और देशवासियों के लिए इस व्यक्ति के दिल में कोई सम्मान नहीं है। जबकि देश की आजादी के लिए कई बार जेल जा चुके इस शख्स ने केरल के किसानों और मजदूरों के सम्मान और बेहतरी के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। इस मामले में मीडिया ने जो भी किया उससे तो यही लगता है कि लोकतंत्र बहुत बुरी चीज है और इससे अच्छा मिलिट्री राज है। मगर जरा ठहरिए, मिलिट्री के मायने और उनकी देशभक्ति क्या दुश्मन की गोली के मायने और उनकी देशभक्ति क्या दुश्मन की गोली खाकर मर जाना है। क्या पूर्वोतर राज्यों और जम्मू में मिलिट्री को लेकर सालों से जो सवाल खड़े किए जा रहे है वह भी क्या देशभक्ति की श्रेणी में आता है। सेवा के विभिन्न घटकों में फैले भ्रष्टाचार से हम अनजान हैं। ऐसे में मैनपुरी के लेफ्टीनेंट चौहान को याद करना चाहिए, जो अपने ही साथियों के बुने जाल में 18 साल तक उलझे रहे। इस देश में न जाने ऐसे कितने चौहान होंगे और अगर गोली खाकर मरना ही देशभक्ति है तो फिर अकेले उन्नीकृष्णन ही क्यों गजेंद्र ने भी सीने में गोली खाई। क्या गजेंद्र को लेकर मीडिया उतनी ही सजग दिखाई दी जितनी उन्नीकृष्णन को लेकर। असल में यह मध्यमवर्गी सोच है, जो हर मसले का हल दूसरे को गाली देकर ही ढूंढना चाहती है। इस मामले में मीडिया का जो रुख रहा वह लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालने जैसा है। यह हिटलरशाही का प्रतीक भी है। अच्युतानंद ने जो बात कही उसको समझने की कोशिश तक नहीं की गई। उनके जिस शब्द को लेकर आलोचना हो रही है, वह तो उन्होंने खुद के लिए कहा था।एक क्षण के लिए अच्युतानंद को छोड़कर रामगोपाल वर्मा उर्फ रामू के मसले पर लौटते हैं। अभी तक एक भी सुबूत ऐसा नहीं पेश किया गया है जिससे यह लगे कि रामू ताज में अपनी किसी फिल्म का लोकेशन देखने गए थे। इसके बावजूद मीडिया ने रामू के विरोध में पूरे बालीवुड को खड़ा कर दिया। उनका दोष क्या केवल इतना भर नहीं है कि महाराष्ट्र के मुखिया उनसे परिचित है। अन्य लोगों की तरह वह ताज में आतंक के बाकी बचे निशान को देखने गए थे। मगर मीडिया को सनसनी की जरूरत थी सो उसने फैला दी। असल में विजुअल मीडिया का दर्द यह है कि ताज में आपरेशन खत्म होने के बाद होटल के दरवाजे उनके लिए नहीं खोले गए। इससे उनको ऐसे विजुअल नहीं मिले जिनके सहारे वह अपने चैनल की टीआरपी बढ़ा सकते थे। इसलिए इन चैनलों ने सनसनी क्रिएट करने का दूसरा तरीका अख्तियार कर लिया और नतीजा हमारे सामने है।देश के इस सबसे संकट के क्षण में विजुआल मीडिया का रुख बेहद गैरजिम्मेदाराना रहा है। उनके रिपोर्टरों और एंकरों में वैसी गंभीरता नहीं दिखाई दी, जैसी इस क्षण में अपेक्षित थी। उनमें जानकारी का भी बेहद अभाव था। इस हमले को लेकर नेताओं के लिए इस्तेमाल की गई शब्दावली और पूरी घटना को हाइप बनाने के उनके प्रयास यह साबित करते हैं कि विजुअल मीडिया के लिए अगर सबसे ऊपर कोई चीज है, तो वह सिर्फ सनसनी है।

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