Friday 2 May, 2008

संपत पाल

हमारे देश के कम्यूनिस्टों को उत्तरप्रदेश के बांदा जनपद के गांव नरैनी की संपत पाल से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। जरूरत है काम के स्तर पर उन्हें समझने और संगठन के स्तर पर उनकी दिशा को जानने की। संपत पाल बीत दो साल में इस क्षेत्र में एक ऐसा नाम बनकर उभरा है जो समर्थक है वंचितों की जो विश्वास हैं उनका जिन्हें समाज से दुत्कार के अलावा कुछ नहीं मिला। संपत पाल ने देखते ही देखते अपने पीछे दस हजार से भी अधिक ऐसी महिलाओं की फौज खड़ी कर ली है जो एक आवाज पर अपनी जान तक दे सकती हैं। संपत की इस ताकत का ही फल है कि आज प्रदेश सरकार के आका उन्हें नक्सली साबित कराने की बैसिर पैर की कोशिशों में लगे हुए हैं।
संपत पाल से जो एक चीज सीखने की जरूरत है वह है संगठन खड़ा करने की उनकी ताकत। संपत के विचार न केवल दलित समर्थक हैं बल्कि उनका रूप रंग और बात करने का ढंग उन्हें दलितों के साथ खड़ा करता है। यही एक खूबी है कि संपत आज बांदा इलाके के दलितों के सर्वाधिक करीब हैं। मुझे याद है वह समय जब मैं कानपुर मैं तैनात था। हमारे साथी बांदा से संपत पाल की गतिविधियों की खबर देते रहते थे। तब संपत और उनके साथी राशन वितरण प्रणाली में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ जूझ रहा था। इन दो सालों में संपत की ताकत कहां से कहां पहुंच गई है। सांप्रदायिकता से लड़ने के बेवकूफी भरे तर्क और कथनी करनी में अंतर रखने वाले देश के कम्यूनिस्टों को संपत से दीक्षा लेने की जरूरत है।
दीक्षा इस बात की कि वह जाने की वंचितों के बीच विश्वास कैसे हासिल किया जाता है। दलित और पिछड़ों को अनपढ़ कहकर उनके दिमाग में सही बात नहीं आती यह तर्क देने वालों को संपत के सानिध्य में कम से कम दो दिन गुजारने की जरुरत है। पीड़ा की भाषा और उसके कारक को भला कौन नहीं जानता है। जानवर भी अपने दुश्मन और दोस्त की पहचान जानता है फिर भला दलितों को यह समझ क्यों नहीं हो सकती। कम्यूनिस्टों जो देश में पिछले सौ साल से अपनी गतिविधियों को संचालित कर रहे हैं उन्हें बंगाल को छोड़कर कहीं बड़ी स्वीकार्यता नहीं मिली है। इसके पीछे वे न समझ आने वाले कारण भी गिनाते हैं। तर्क यह कि उनकी सही बातें देश के लोगों को समझने में देर लगेगी कि सांप्रदायिकता के जहर ने लोगों की बुद्धि पर पर्दा डाल दिया है आदि, आदि। इन लोगों को यह समझना चाहिए कि जो संपत के साथ खड़े है वह बहुत बड़े बुद्धिजीवी नहीं हैं और न ही वह लोग नास्तिक हैं फिर उन्हें शोषण की भाषा और उसके विरोध की केमेस्ट्री अच्छी तरह आती है। वह जानते हैं कि संपत की नीयत बेहद साफ है। भले ही उत्तरप्रदेश की पुलिस को वह कुछ भी लगे। वैसे संपत के साथ प्रदेश की पुलिस कुछ वैसा ही कर रही है जो कभी अमेरिकी सरकार ने ओशो के साथ किया है। जो आप के साथ नहीं खड़ा है उसे मिटा दो।