Sunday 14 December, 2008

अब कौन बचाए नौकरी

दुनिया में हर दस सेकेंड में एक व्यक्ति को नौकरी से निकाला जा रहा है। दिसंबर माह में ही अब तक 1.15 लाख लोग नौकरी से हाथ धो चुके हैं। भारत में भी हालत बेहद खराब हैं। यह 1930 के बाद मंदी की सबसे बड़ी मार है। 1930 को हम मं से किसी ने नहीं देखा और न ही उस समय की मंदी के व्यापक फलक की जानकारी है लेकिन कहा जाता है कि उस समय कई लोग भूख से मर गए। विशेषज्ञ कह रहे हैं कि मंदी की यह महादशा अभी जारी रहेगी। तमाम कंपनियों से बिना किसी कायदे और कानून के कर्मचारी और मजदूरों को निकाला जा रहा है। मजा यह है कि कोई भी संगठन उद्योगपतियों की इस बेहिसाब कार्रवाई पर उनसे हिसाब मांगता नहीं दिख रहा है। आखिर इसका मतलब क्या है।याद कीजिए 1995 के आसपास के दिन। दुनिया और खासतौर पर भारत बदल रहा था। ग्लोबलाइजेशन की गूंज। ऐसी कि कुछ दूसरा सूझ ही नहीं रहा था। आस आदमी को भी लग रहा था कि उसकी तरक्की की राह रूकी पड़ी है। इसके कुछ सालों में ही हर देशवासी के पास आसानी से पैसे की आवक भी शुरू हो गई। आसानी से नौकरी मिलने लगीं। न ही सरकारी प्राइवेट ही सही। तनख्वाह मोटी हुईं और आम वर्ग भी सुविधा संपन्न की श्रेणी में आने लगा। देश में अमीरों की संख्या में बढ़त्तरी हुई। गरीबी कितनी बढ़ी किसी को दिलचस्पी की नहीं रही। ठीक यही वह समय था जब मजदूर और कर्मचारियों ने ट्रेड यूनियनों को अव्यवहारिक प्रतिगामी बताना शुरू कर दिया। उद्योगपति में उसे देवता नजर आने लगे। ट्रेड यूनियनों की मौजूदगी को बकवास करार दिया जाने लगा। इस स्थिति पर निर्णायक चोट की पूंजीपतियों की हितैषी सरकारों ने। ऐसे नियम और कायदे बनाए गए जिससे ट्रेड यूनियन सिकुड़ती गईं। कानून का सहारा लेकर ऐसी व्याख्याएं की गईं जिससे हड़ताल जैसे मौलिक अधिकार को गैरजरूरी और गैरकानूनी बताया गया। ट्रेड यूनियन के नेता न केवल हताश हुए बल्कि कई जगह उनकी उपस्थिति ही खत्म हो गई। ऐसे हालात में जाहिर है कि इस मंदी में आम आदमी की टूटती कमर पर अगर धन और मुनाफे के भूखे उद्योगपति वार कर रहे हैं तो उसे रोकने वाला कोई नहीं है। विरोध तो छोडि़ए कामगार इतना असंगठित और बिखरा हुआ है कि उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। किंकर्तव्यविमूढञ की स्थिति में बेकार होने के अलावा कोई चारा ही नहीं है। सरकार है कि पहले ही छंटनी के रास्ते साफ कर चुकी है। ऐसे में प्रशासनिक सुधार आयोग जिसका स्वर कहता है कि अगर बॉस खुश नहीं तो नौकरी की सलामती नहीं। प्रशासनिक सुधार आयोग नाकारा नौकरशाही पर कितना अंकुश लगा पाएगा पता नहीं लेकिन इससे कर्मचारी और खासतौर पर महिला कर्मचारी के शोषण का एक रास्ता जरूर खुल जाएगा।

Monday 8 December, 2008

हवा हो गई इंजीनियरिंग

भाई लोग कुछ ज्यादा ही सोच गए। इतना ज्यादा की सोशल से सरोकार ही नहीं रहा। अब सोशल यांत्रिकी की हवा निकल गई है, यह भाई लोगों की समझ में आ गया होगा। मध्यप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में हाथी को झूमाने की बात करने वाले बड़ी शेखी मार रहे थे। मध्यप्रदेश में दो माह तो जैसे उत्तरप्रदेश की पूरी सरकार ही उतार दी गई थी। शेखीखोरों में भी खूब ऊंची-ऊंची मारी। एक सबसे बड़े अखबार के बड़े रिपोर्टर ने तो मध्यप्रदेश के एक पूरे हिस्से में हाथी के झूमने के दावे कर डाले थे। सच्चाई सामने है। बसपा प्रदेश में वह नहीं कर सकी जिसके बूते बहनजी दिल्ली की बारी देख रही थीं। मैने लगभग दो माह पहले ही मायावती के सोशल इंजीनियरिंग का मध्यप्रदेश के चुनाव में होने वाले हश्र के बारे में इसी ब्लाग में लिखा था। तब मैने कहा था कि इसका बहुत बड़ा असर पड़ने नहीं जा रहा है। बात साफ है कि इस प्रदेश में दलित आज भी कांग्रेस से अपना जुड़ाव महसूस करता है। वही हुआ भ। मैं अपनी इस बात तो एक उदाहरण से समझाने की कोशिश करूंगा। मध्यप्रदेश का एक जिला है मुरैना। बीते चुनाव में इस इलाके में बसपा का खासा जोर रहा था। एक बार तो इस जिले की तीन सीटों पर बसपा ने कब्जा किया था। इस बार ग्वालियर और चंबल दो संभागों को मिलाकर बसपा चार सीटे ही जीत पाई है। मुरैना जिले की सबलगढञ सीट पर बसपा ने इस बार नौजवान चंद्रप्रकाश शर्मा को मौका दिया था। गणित भी ठीक था। इस सीट पर अगर दलित और ब्राह्मण मतदाता को जोड़ दिया जाए तो बसपा की जीत पक्की थी। मगर हुआ उलटा। बसपा इस सीट पर तीसरे नंबर पर रही। सीट गई कांग्रेस के उस प्रत्याशी के पास जिसे हमारे उस बड़े अखबार के बड़े पत्रकार कमजोर मान रहे थे। वोट का आंकड़ा भी अप्रत्याशित रहा। इसका कारण रहा दलित वोट का कांग्रेस के पाले में झुकाव। कमोवेश यही हाल जौरा का है। यहां बसपा जीती जरूर लेकिन सोशल इंजीनियरिंग की वजह से नहीं। इस सीट पर कुशवाहा समाज का बसपा का जबरदस्त समर्थन रहा। यही इस बार भी हुआ है। मध्यप्रदेश में बसपा ने इस चुनाव में सात सीटे जीती हैं। बसपा इसे अपनी बड़ी जीत मान रही है। हालांकि इतनी सीटे वह प्रदेश में पहले भी जीत चुकी है। यह आंकड़े उत्साहित करने वाले तो कतई नहीं हैं। मध्यप्रदेश की जनता ने एक बार फिर दिखा दिया है कि वह देखती सबकी है लेकिन करती हमेशा मन की है। उनके दिलों में राजनेता उत्तरप्रदेश की तरह जातीय विद्वेष की खटास और जीभ लपलपाती सत्ता का अंग होने की लिप्सा नहीं भर सके हैं। कह सकते हैं कि अभी बहन जी को और इंतजार करना होगा। वैसे भी जहां-जहां सपा है बस वहीं बसपा है। कारण बसपा और सपा को एक जैसी जमीन से ही राजनीति की खुराक मिलती है जो कमोवेश अभी मध्यप्रदेश में नहीं है।

Wednesday 3 December, 2008

मीडिया की यह कैसी जवाबदेही

आखिर अच्युतानंदन ने माफी मांग ली। इसके बाद शहीदों के सम्मान को क्षति पहुंचाने वाले उनके बयान की कहानी का यही अंत हो जाना चाहिए। मुंबई पर आतंकी हमले के बाद मीडिया खासकर विजुअल मीडिया ने जो संसार रहा है उसमें किसी को भी हीरो से जीरो और जीरो से हीरो बनाने की काफी गुंजाइश है। असल में इस हमले के बाद आवेग और उत्सुकता का जो स्पेस बनाया गया है उसमें ठहर कर सोचने का समय किसी के पास नहीं है। कम से कम दो मामले में विजुअल मीडिया की कवरेज जवाबदेही के घेरे में अवश्य खड़ी की जा सकने योग्य है। इसमें कोई शक और सुबहा नहीं कि भारतीय जांबाजों ने अपनी जान पर खेलकर आतंकियों से लोहा लिया। इस हमले में शहीदों के प्रति देशवासियों के दिलों में सम्मान की जो लहर उठी है उसका सुबूत हर ओर दिख रहा है। सवाल यह है कि क्या देशभक्ति का एकमात्र सुबूत जान देना ही है। अगर नहीं तो फिर यहां ठहरकर विचार करने की जरूरत है। अच्युतानंद छह दशक से भी अधिक समय से देश की राजनीति में सक्रिय हैं। आप उनकी विचारधारा से सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठा सकते। आज की पंक राजनीति के दौर में अच्युतानंद केरल सहित देश के उन चंद राजनेताओं में शुमार है, जिनका नाम सम्मान से लिया जाता है। वह देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले लोगों में शुमार रहे हैं। वह केरल के सीएम हैं। ऐसे में व्यक्ति का अपमान हुआ तो मीडिया ने क्या किया। जबकि आवेश में दिए गए बयान को लेकर उसने उनको खलनायक बना डाला। उनके बयान को तरीके से पेश किया गया मानो देश और देशवासियों के लिए इस व्यक्ति के दिल में कोई सम्मान नहीं है। जबकि देश की आजादी के लिए कई बार जेल जा चुके इस शख्स ने केरल के किसानों और मजदूरों के सम्मान और बेहतरी के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। इस मामले में मीडिया ने जो भी किया उससे तो यही लगता है कि लोकतंत्र बहुत बुरी चीज है और इससे अच्छा मिलिट्री राज है। मगर जरा ठहरिए, मिलिट्री के मायने और उनकी देशभक्ति क्या दुश्मन की गोली के मायने और उनकी देशभक्ति क्या दुश्मन की गोली खाकर मर जाना है। क्या पूर्वोतर राज्यों और जम्मू में मिलिट्री को लेकर सालों से जो सवाल खड़े किए जा रहे है वह भी क्या देशभक्ति की श्रेणी में आता है। सेवा के विभिन्न घटकों में फैले भ्रष्टाचार से हम अनजान हैं। ऐसे में मैनपुरी के लेफ्टीनेंट चौहान को याद करना चाहिए, जो अपने ही साथियों के बुने जाल में 18 साल तक उलझे रहे। इस देश में न जाने ऐसे कितने चौहान होंगे और अगर गोली खाकर मरना ही देशभक्ति है तो फिर अकेले उन्नीकृष्णन ही क्यों गजेंद्र ने भी सीने में गोली खाई। क्या गजेंद्र को लेकर मीडिया उतनी ही सजग दिखाई दी जितनी उन्नीकृष्णन को लेकर। असल में यह मध्यमवर्गी सोच है, जो हर मसले का हल दूसरे को गाली देकर ही ढूंढना चाहती है। इस मामले में मीडिया का जो रुख रहा वह लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालने जैसा है। यह हिटलरशाही का प्रतीक भी है। अच्युतानंद ने जो बात कही उसको समझने की कोशिश तक नहीं की गई। उनके जिस शब्द को लेकर आलोचना हो रही है, वह तो उन्होंने खुद के लिए कहा था।एक क्षण के लिए अच्युतानंद को छोड़कर रामगोपाल वर्मा उर्फ रामू के मसले पर लौटते हैं। अभी तक एक भी सुबूत ऐसा नहीं पेश किया गया है जिससे यह लगे कि रामू ताज में अपनी किसी फिल्म का लोकेशन देखने गए थे। इसके बावजूद मीडिया ने रामू के विरोध में पूरे बालीवुड को खड़ा कर दिया। उनका दोष क्या केवल इतना भर नहीं है कि महाराष्ट्र के मुखिया उनसे परिचित है। अन्य लोगों की तरह वह ताज में आतंक के बाकी बचे निशान को देखने गए थे। मगर मीडिया को सनसनी की जरूरत थी सो उसने फैला दी। असल में विजुअल मीडिया का दर्द यह है कि ताज में आपरेशन खत्म होने के बाद होटल के दरवाजे उनके लिए नहीं खोले गए। इससे उनको ऐसे विजुअल नहीं मिले जिनके सहारे वह अपने चैनल की टीआरपी बढ़ा सकते थे। इसलिए इन चैनलों ने सनसनी क्रिएट करने का दूसरा तरीका अख्तियार कर लिया और नतीजा हमारे सामने है।देश के इस सबसे संकट के क्षण में विजुआल मीडिया का रुख बेहद गैरजिम्मेदाराना रहा है। उनके रिपोर्टरों और एंकरों में वैसी गंभीरता नहीं दिखाई दी, जैसी इस क्षण में अपेक्षित थी। उनमें जानकारी का भी बेहद अभाव था। इस हमले को लेकर नेताओं के लिए इस्तेमाल की गई शब्दावली और पूरी घटना को हाइप बनाने के उनके प्रयास यह साबित करते हैं कि विजुअल मीडिया के लिए अगर सबसे ऊपर कोई चीज है, तो वह सिर्फ सनसनी है।