Monday 7 April, 2008

मेरा सपना
मैं आखिर चाहता क्या हूं.
नीले फूल, पीली घाटियां,
भरा हुआ पूल या लहलहाती बालियां।
चलता हूं, घूमता हूं,इनसे गुजरता हूं,
चितकबरे रास्तों से होता हुआ।
हरेक कदम जीत का,कदम बोसा बनता हुआ।
धुआं सा तैरता है,
गर्व करता रहा,
अपनी उस सोच पर,
जिसकी कुकरमुत्ते जैसी शाख पर,
सवार होकर,
जीत लेना चाहता हूं दुनिया।
सोचता हूं,
जीतने में वह सुख नहीं,
जो पूल में सिर डालकर,
पैरों को थका डालने में हैं,
जीतने में मैं उसका,
सब हरण कर लेता हूं।
सपना, अपना,
और मेरे साथ होता है,
हारे हुए का शव,
क्या मैं शव का साथ चाहता हूं।
नहीं,फिर भी लुभाती है,
फिर-फिर लुभाती है,
हवा की रवानी में,
उड़ती रंग-बिरंगी,
तितलियां और थिरकते मोर।।

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