Friday 20 June, 2008

वाह गोविंदाचार्य आह गोविंदाचार्य

पतंजलि योग पीठ में गंगा बचाओ अभियान के लिए संत रामदेव की अगुवाई में हुई मंत्रणा में गोविंदाचार्य ने जो कुछ कहा उसे समझना होगा। गोविंदाचार्य ने विहिप की इस मसले में दोहरी नीति से खिन्न होकर इस तरह टिप्पणी की। सांस्कृतिक मामलों को सियासी नजरिए से हल नहीं किया जा सकता। गोविंदाचार्य को यह बात राममंदिर के समय समझ में क्यों नहीं आई। लगता है भाजपा से दूरी और विहिप-आरएसएस से वनवास ने उनका बुद्धत्व जगा दिया है। सच ही तो है कि सांस्कृतिक मसले सियासी नजरिए से हल नहीं होते। बात यह उठती है कि आखिर उन्होंने धर्म की जगह संस्कृति शब्द को क्यों चुना। हम में से अधिकांश को याद होगा कि 1990 के उन झंझावाती समय में जब हिंदु मुसलमान को दो संस्कृति न मानकर यही संगठन और गोविंदाचार्य धर्म मानने और मनवाने पर उतारू थे। दरअसल तब उनका मकसद धर्म शब्द से हल होता था। आज धर्म शब्द राजनीति में चुक चूका है। सो जानबूझकर सांस्कृतिक शब्द उठाया गया है। संस्कृति मनुष्य की सामाजिक और सार्वजनिक चेतनाहै। संस्कृति के निर्माण में धर्म से अधिक स्मृति का अंशदान और योगदान होता है।भारतीय संस्कृति को संस्कृति की इसी परंपरा ने जिंदा रखा है। धर्म और धर्म के स्वरूप,सिद्धांत और उनकी व्यख्याएं आती जाती रहती हैं। सभ्यता और संस्कृति का अधिकांश स्मृति और उसकी मानवीय चिताओं के यथार्थ और उसके सपनों से ही निर्मित होता है। कोई भी संस्कृति हो उसकी धमनियों में सांस्कृतिक स्मृति का रक्त ही प्रवाहित होता है। भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है मुसलमान। इस बात को आरएसएस और विहिप जानते हुए भी भुलाए रहती है। शायद ऐसा करने में ही उसकी भलाई या विवशता है। इस विवशता का मूल कारण है भारतीय मानस का चिंतन। उसने कभी भी अलगाववादियों को इसकी इजाजत नहीं दी। इसलिए गोविंदाचार्य ने बड़ी सफाई से सांस्कृतिक शब्द जोड़ा है। इस सफाई को चतुराई ही कहिए। गोविंदाचार्य भी आखिर उसी विहिप और आरएसएस की कोख की उपज हैं जिसके मास्टरमाइंड इन दिनों आडवाणी को साफ्ट चेहरा साबित करने में जुटे हैं। यह मुहिम है आडवाणी को भारत की कुर्सी दिलाने की। इसलिए सभी साफ्ट हैं मगर विवशता में।यह नहीं तो फिर जिस गंगा बचाओ अभियान में सभी धर्म और पंथ के संगठनों को जोड़ा गया, जिसमें अलग रास्तों पर चलने वाले लोग भी शामिल हैं, उसमें किसी अगुवा मुस्लिम संगठन को क्यों शामिल नहीं किया गया। गोविंदाचार्य बताएं कि क्या इससे ही उनका गंगा अभियान अपवित्र हो जाता और क्या वह हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं।

Saturday 7 June, 2008

शब्दों को खाता बाजार

बाजार की ताकत केवल व्यक्ति को ही नहीं बदलती है,शब्दों को भी खा जाती है। यह ताकत केवल उपभोक्ता सोच को नियंत्रित करत है ऐसा नहीं है। इससे न केवल सामाजिक चेतना डोलती है बल्कि कई मामलों में यह बदलाव भाषा के स्तर पर भी होता है। बाजार की ताकत शब्दों को भी कमजोर करने की साजिश रचती है।कल तक एक शब्द मध्यम और निम्न वर्ग के घर-घर में बोला जाता था। वह था लट्टू, बल्ब। सीएलएफ की ताकत के सामने आज यह शब्द निस्तेज हो गया है हो रहा है। आमतौर पर अब यह शब्द बहुत कम सुनने को मिलता है। उस मध्यम वर्ग के मुंह से भी नहीं जिसके घर के अंधेरे को दूर करने के लिए यह लंबे समय तक उजाले का प्रतिनिधि रहा। बाजार की ताकत मैं यह शब्द धीरे-धीरे खो रहा है। ठीक वैसे ही जैसे कभी चवन्नी खोई थी। हाल ही में अठन्नी ने अपना दाम खो दिया है। तो केवल शब्दों को ही नहीं मुद्रा का मूल्य बाजार का जाता है। इसे क्रिया को कई बार स्थानीय कारोबारी भी नियंत्रित या फिर अवमूल्यित करते हैं लेकिन शब्दों के मामले में यह किसकी साजिश है। जाहिर है कि बाजार की ताकत से व्यक्ति, समाज और संस्था ही नहीं शब्दों को भी खतरा है।