Sunday 25 March, 2012

आओ साथी बैठें कुछ बात करें


आओ साथी बैठें कुछ बात करें
कुछ दुख की कुछ सुख की
भूली बिसरी कुछ बात करें
आओ साथी बैठें कुछ बात करें।
याद तुम्हें होगा अपना वह सपना
सपना जो सच हो न सका होकर अपना
छोड़ो भूलें भी हाथ नहीं आया जो उसको
आओ पास जो है अपने उसके गीत सुनें
आओ साथी बैठें कुछ बात करें।
संघर्षों में सधे हुए हम दूब नाल से
रौंदे गए हजारों बार फिर तने भाल से
उठे, खिले फिर से हर बार हरे हुए
हम हारेंगे नहीं साथ जो तुम डटे रहे
आओ मिल फिर संकल्पों को याद करें
आओ साथी बैठें कुछ बात करें।।
ताने मत मारो देखो कुछ खोया नहीं हमसे
दूर हूं पर छूटा नहीं आज भी तुमसे
फिर क्यूं चिंतित मन की चिता जलाते हो
आओ मिल फिर स्वाति की बूंदों का पान करें
आओ साथी बैठें कुछ बात करें।।

Thursday 22 March, 2012

आधा तीतर और आधा बटेर क्यों है पत्रकार

यह मीडिया में ही संऽाव है। खुद से सवाल पूछना और फिर उनके उत्तर तलाशना। मीडिया के अलावा शायद ही किसी संस्थान में यह हो कि वह खुद ही से ही लघ्ता ­झगघ्ता और फिर नए रास्ते तलाशता आगे बघ्े। यही कारण है कि मीडिया तमाम अंतरविरोधों के बाद ऽाी अपने समकक्ष संस्थानों के सामने मजबूती से खघ है। मीडिया के अंदर समाचार के कंटेंट, सरोकार, मानवीय मूल्यों के लिए बहस लंबे समय से रही है। यह हर स्तर और हर पक्ष पर लगातार जारी है।
ह्यमीडिया में मानवीय सरोकारों पर काम नहीं हो रहाह्ण जब हम यह कहते हैं तो अधूरा वाक्य बोलते हैं। शायद इसके पीछे ऽााव यह होता है कि पहले ऐसा होता था और आज ऐसा नहीं हो रहा है। अर्थात इसका अनुवाद यह हुआ कि समाचार संकलन में लगा एक रिपोर्टर मानवीय मूल्यों ऽाूख, गरीबी, बेकारी, दुखों पर वह खबरें तैयार नहीं कर पा रहा है जो उसे करनी चाहिए। सवाल उठता है तो फिर वह कर क्या रहा है। और यदि वह नहीं कर रहा है जिसकी उससे अपेक्षा की जा रही है या यूं कहें कि वह वह नहीं कर रहा जो उसे करना चाहिए तो इसकी जिम्मेदारी किस पर है। सिर्फ उस पत्रकार पर? या फिर उस संस्थान पर ऽाी जिसमें वह सेवा दे रहा है। आखिर उसके ऐसा न कर पाने के लिए क्या वह पूंजीपति मालिक जिम्मेदार नहीं है जिसके लिए वह काम कर रहा है।
वैश्विक मूल्यों को लेकर वैश्विक सिलसिले तलाशने की अऽिालाषा में विकाशील देशों के पूंजीपतियों ने वही रुख अख्तियार किया जो अमेरिकी या अमेरिकापरस्त धनपशु उठा रहे हैं। नतीजतन मूल्यों की वह विरासत जो ऽााषा की क्यारियों में गोघ्कर बघ्ी की जाती हैं वे सूख गईं। हिंदी की अपनी शैली है और परपंरा ऽाी लिहाजा हिंदी कऽाी अंग्रेजी या दूसरी विदेशी ऽााषाओं की तरह पक्षधरिता की समस्या से जूझती नहीं रही। हिंदी की पत्रकारिता में काल का फर्क हो सकता है, लेकिन सरोकारों का फर्क कऽाी नहीं रहा। लेकिन अंग्रेजी से आयातित मूल्य विधा ने हिंदी की पत्रकारिता को ऽाी पक्षधरिता की समस्या में उलझा दिया। जैसे कोई यह प्रशन पूछे कि एक सरोवर में नौका स्पर्धा हो रही है उसमें एक नौका किसी बघ्ी सिगरेट कंपनी की है और दूसरी नौका मल्लाहों की है। अब अगर आपसे पूछा जाए कि कौन सी नौका जीतेगी तो इसका उत्तर ही आपकी पक्षधारिता का आईना होगा।
आप अगर सिगरेट कंपनी की नौका के साथ हैं तो जाहिर है आप पूंजीपति व्यवस्था के समर्थक हैं और अगर मल्लाहों की नौका की तरफ हैं तो जाहिर है कि आप श्रम और मेहनत के पक्ष में खघ्े हैं।

दरअसल मीडिया के कामकाज और उसके सरोकारों पर चर्चा करते समय हम उसकी स्थिति और दबावों पर ध्यान नहीं देते या फिर जानबूझकर उसे अनदेखा करते हैं। समय के दबाव में उपजी आज की स्थिति ने फटाफट पत्रकारिता के चेहरे पर ऽाी नए चेहरे को उजागर किया। यह वह तथ्य है जिसने कंटेंट का कचूमर निकाल दिया है।
हिंदी प्रिंट पत्रकारिता में जिला संस्करण का दौर शुरू होने के साथ ही समय का दबाव का संकट पत्रकारिता का नया पहलू बनकर उऽारा। जिला संस्करण की परिपाटी शुरू कर हिंदी अखबारों ने पाठकों की संख्या और अपने धंधे में बेहतरीन विकास किया लेकिन उसके मालिकों ने पत्रकारों की स्थिति और कामकाज की स्थितियों पर बिल्कुल ऽाी ध्यान नहीं दिया यानी वह पत्रकार जो पत्रकारिता के इस नए विकास की सबसे विधायी और जरूरी कघ्ी थी और जिसने हिंदी पत्रकारिता के विकास के इस नए युग की बुनियाद रखी उसे ऽाूला दिया गया और उसे उसके हाल पर छोघ् दिया गया। दूसरे शब्दों में कहें तो मालिकों की जेबें तो ऽारी लेकिन पत्रकारों को ज्यादा लाऽा नहीं दिया। न अकादमिक क्रम में और न ही व्यवसायिक क्रम में। मुक्त अर्थव्यवस्था के साथ ही हिंदी मीडिया में कई संस्करणों वाले समूह तेजी से बघ्े। इन समूहों ने अपने कामकाज को जिला और तहसील स्तर पर फैलाया। हर जिले के लिए इन पत्रों ने दो और तीन पेज और कहीं-कहीं इसके ऽाी अधिक पेज निर्धारित किए गए। सोच यह थी कि स्थान अधिक मिलने से स्थानीय खबरें, पाठकों की जरूरत को अधिक आसानी से पूरा कर सकेंगे और पाठ्य सामग्री बघ्ेगी। तो जाहिर है कि पाठकों की संख्या बघ्ेगी। पाठकों की संख्या बघ्ी ऽाी लेकिन मानवीय सरोकारों का इसमें सिरे से अऽााव रहा। अखबारों ने अपने कलेवर को सुधार कर यह काम किया लेकिन लंबे समय तक कलेवर के दम पर पाठकों को नहीं बाधा जा सकता। इसलिए आज फिर कंटेंट की चर्चा है। आखिर चूक कहां हुई। दरअसल इन मीडिया घरानों ने इस काम के लिए जिले पर अपने जिन पत्रकारों की नियुक्ति की और जो मीडिया के कंटेट को बेहतर बनाने के लिए उत्तरदायी थे उनकी बेहतर स्थिति के लिए कोई ऽाी उत्तरदायित्व लेने को तैयार नहीं हुआ। ऐसे तमाम जिले थे जहां दो या तीन पत्रकारों को ही तीन-तीन पेजों का स्पेस ऽारने के लिए खबरें लिखनी होती थीं। एक पेज की खबर का अर्थ है उसे 40 हजार कैरेक्टर लिखने होते थे। इसके लिए उसे सुबह 10 बजे से ही अपने काम की शुरूआत करनी होती थी जो रात के 10 या 11 बजे ही खत्म होती। इस बीच में मुख्यालय से मिलने वाली स्टोरी लाइन और पैकेज पत्रकारिता के नाम पर शुरू हुई डेस्क की दादागिरी ऽाी उसे झेलनी होती। इस काम के एवज में उसे मिलने होते थे 5 से लेकर 8 हजार रुपये। यानी उसके 12 घंटे काम की कीमत। यह वह कीमत है जिसमें उसे मोबाइल और पेट्रोल का खर्च ऽाी निकालना होता है। यानी एक खबर पर काम करने के लिए उसे अगर एक दिन में 50 किलोमीटर ऽाी मोटरसाइकिल पर जाना होता है तो उसे 70 रुपये खर्च करने होते हैं। महीने में अगर 10 दिन ऽाी उसे इस तरह काम करना पघ तो 1000 रुपये उसे महज पेट्रोल पर ही खर्च करने होंगे जिसका कोई रिटर्न उसे संस्था से नहीं मिलता। ऐसे में कई बार ऐसा होता है कि मानवीय मूल्यों पर काम करते हुए खुद दुख की गठरी बन जाता है। अब जरा इस बात को लालकृष्ण आडवाणी के सतना में दौरे के दौरान पत्रकारों के बीच बांटे गए लिफाफों की रोशनी में समझे। राडिया और बरखा के संबंधों पर चुप बैठे रहने वाले तथाकथित बघ्े पत्रकारों का सतना का संकट कही अधिक बघ लगता है। सवाल यह है कि आखिर उन पत्रकारों ने महज 500 रुपये का लिफाफा लेने में हिचक क्यों नहीं महसूस की। इसके लिए ऽाी मीडिया संस्थान के वही मालिक जिम्मेदार है जो उसे पेट्रोल की कीमत तक नहीं दे पाते। उससे काम तो ढेर सारा लेना चाहते हैं लेकिन उसकी दैनिक जरूरतों और संकटों से उन्हें कोई मतलब नहीं है।
दूसरी और जरूरी बात यह है कि मीडिया के मालिक बने फिरते धंधेबाज थैलीशाहों ने सरोकारों को सिरे से खारिज किया। इसीलिए आउटलुक जैसी पत्रिका के पहले संपादकीय में कहा गया कि यह आम आदमी के लिए नहीं। यह वर्ग विशेष की पत्रिका है। वर्ग विशेष अर्थात प्रऽाु वर्ग। प्रऽाु वर्ग अर्थात ऐसा वर्ग जो पैसे से, तिजारत से और हुकूमत से सीधा साबका रखता है, रसूखदार।
यही नहीं वह उस पत्रकार से काम के स्तर पर तो क्रांति कर देने की उम्मीद करते हैं लेकिन जब ऐसी ही साहसिक खबरों के खिलाफ ह्यचोरों की मंडलीह्ण सक्रिय होती है तो वह ऐसे पत्रकार से ही किनारा कर लेते है। तब वह पत्रकार कहा जाए। एक तो मानवीय और पत्रकारिता के मूल्यों के नाम पर वह समाज के रसूखदारों से टकराव ले चुका है और इधर उस संस्थान ने जिसे वह अपनी रोजी-रोजी मानता है उससे किनारा करना शुरू कर दिया। ऐसे में तमाम बहसजादा टाइप के संपादक, मानवीय मूल्यों की वकालत करने सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकारिता की बेहतरी का खंऽा ठोकने वाली प्रेस कौंसिल कोई ऽाी उसके बचाव में दिखाई नहीं देती।
मैं एक उदाहरण से अपनी बात को स्पष्ट करना चाहूंगा। बात उन दिनों की है जब मैं देश के एक बघ्े हिंदी अखबार में उत्तरप्रदेश में एक जिले का प्रऽाारी था। जिला न्यायालय से डकैती की एक फाइल गुम हो गई। यह फाइल इसलिए ऽाी महत्वपूर्ण थी कि इसमें आधा सैकघ लोग आरोपी थे। इसकी स्थानीय थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई गई। रिपोर्ट के एक दो दिन बाद ही यह फाइल इसी न्यायालय के एक जज की गाघ्ी से पुलिस ने बरामद की। इस पर मैने खबर लिखी। जाहिर है कि मामले की रिपोर्ट दर्ज हुई और बरामदगी दिखाई तो तथ्य साफ थे कि घटना हुई थी और इसी पर खबर लिखी गई। मगर इस खबर के बाद जिला जज बुरी तरह तिलमिला गए। वह इस कदर आपा खो बैठे कि अपने लेटरहैड पर न्यायालय की मुहर के साथ मुझे इस आशय का पत्र लिखा कि वह मेरी जिंदगी तबाह कर देंगे। यही नहीं उन्होंने मेरे तत्कालीन संपादक को इसकी शिकायत ऽाी की। चूंकि मेरे पास सारे सुबूत थे इसलिए जिला जज के पत्र के साथ इसकी शिकायत मैने प्रेस कौंसिल और जज के रवैए की शिकायत हाइकोर्ट को कर दी। अब देखिए किसने क्या कारर्वाई की--
संपादक महोदय-
उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि अगर तुम्हें पत्रकारिता का इतना ही शौक है तो अपना अखबार निकाल लो। (आज यह संपादक देश के नामी अखबार में एक्जीक्यूटिव एडीटर हैं)
प्रेस कौंसिल-
इस संस्था की तरफ से मुझे कोई जवाब ही नहीं मिला
हाइकोर्ट--
जिला जज को मुख्यालय में बुलाकर विजीलेंस की जिम्मेदारी दे दी गई।
और मेरे साथ क्या हुआ।
इस घटना के कुछ दिनों बाद ही मुझे रिपोर्टिंग से हटाकर डेस्क पर बिठा दिया गया। अब कोई बताए कि इन हालातों में मानवीय मूल्यों का कोई क्या करे। छाती पीटे या आहें ऽारे।

और अंत में.. .. .. .. ..
मेरे मित्र का एक सवाल है। मालिकों की मर्जी और उनके आर्थिक सरोकारों से संचालित हो रही मीडिया का क्यों न राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए। आज जब मीडिया मिशन न होकर प्रोफेशन हो गया है तो क्यों न उसे प्रोफेशन के नियम और कानूनों से संचालित किया जाए। आखिर पत्रकार आधा बटेर और आधा तीतर कब तक रहेगा। कम से कम तब सरकार ही का तो दवाब रहेगा। वैसे आपकी क्या राय है।

Monday 19 January, 2009

न्याय की खातिर

सूचना का अधिकार अपने अधिकार को लेकर एक बार फिर चर्चा में है। इस मुद्दे पर मुख्य सूचना आयुक्त और सुप्रीम न्यायाधीश आमने-सामने हैं। यानी की शीर्ष सत्ता इस एक कानून को लेकर भिड़ी हुई है। मामला बेहद पेचीदा है। सूचना आयुक्त का मानना है कि पद पर रहते हुए किसी भी व्यक्ति के पास मौजूद दस्तावेज निजी नहीं हो सकते वहीं सुप्रीम न्यायाधीश जजों की संपत्ति के मामले में उनके पास उपलब्ध सहायकों के दस्तावेज बेहद गोपन बता उसे सूचना अधिकार के दायरे में लाने से ही इंकार कर रहे हैं। सूचना का अधिकार लोकतंत्र में जनता को सर्वोपरि मानते हुए उसे प्रदत्त यह अधिकार उसकी महत्ता और इस व्यवस्था में उसके शीर्ष पर होने को रेखांकित करता है। यानी जो कुछ भी है वह जनता के लिए हैं। उसे जानने का अधिकार है कि लोकतंत्र के स्तंभ उसके लिए क्या सोच रहे हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था की मर्यादा ही इस बात में है कि उसके तीनों स्तंत्र समान हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। इन स्तंभों के छोटे या बड़े होने की दशा में वह लोकतंक्ष नाम की इमारत का नक्शा ही बिगाड़ते हैं। सूचना का अधिकार अभी अपने शैशव काल में है। इन तीनों स्तंभों से यह उम्मीद की जाती है कि वह इसके जीवित रहने के लिए जरूरी खाद पानी मुहैया कराएं। लेकिन जिनके हाथों में इसकी जिम्मेदारी है वही आक्सीजन ट्यूब को काटने का काम कर रहे हैं। न्याया सरीखे सम्मानीय किसी भी पद पर रहने वाले किसी भी शख्स के लिए कामकाज में शुचिता और पारदर्शिता का होना बेहद जरुरी है। सूचना का अधिकार इसी पारदर्शिता को बनाए रखने का प्रयोजन मात्र है। अब अगर सम्मानीय न्यायाधीश महोदय इस पद पर रहते हुए किसी सूचना को व्यक्तिगत कह रहे हैं तो इस पर विचार होना ही चाहिए। यह तो ठीक वैसा ही जैसे पड़ोसी के घर भगत सिंह पैदा होने की कामना करना। महा न्यायपालिका की इच्छा तो यही है कि देश में कानून का राज कायम रहे। किताबों में दर्ज कानून की सत्ता सचमुच साकार हो, लेकिन सूचना अधिनियम के आडे आकर तो कमोबेश वह अपनी इस मंशा के विपरीत ही जाती दिखती है। अगर जजों की निजता के गोपन में सब कुछ सही है तो उसके उजागर होने में हर्ज ही क्या है। वैसे भी राजा और दंडाधिकारी के लिए जितना जरूरी ईमानदार होना है उससे ज्यादा जरूरी है ऐसा दिखना। वैसे यह कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले उत्तर प्रदेश में हाईकोर्ट ने किसी भी सूचना की प्राप्ति के लिए 500 रुपये की फीस तय की थी। यह कदम सूचना अधिनियम के खिलाफ था। इस अधिनियम के मुताबिक यह फीस महज 10 रुपये होनी चाहिए थी। इस मामले को मैने खुद सूचना आयुक्त लखनऊ के यहां उठाया था। बाद में मुकेश केजरीवाल ने भी इस मामले में शिकायत दर्ज कराई थी। सूचना आयुक्त ने फैसला हमारे पक्ष में सुनाया था। अब फिर यह दोनों शीर्ष संस्थाओं आमने-सामने हैं।

Sunday 14 December, 2008

अब कौन बचाए नौकरी

दुनिया में हर दस सेकेंड में एक व्यक्ति को नौकरी से निकाला जा रहा है। दिसंबर माह में ही अब तक 1.15 लाख लोग नौकरी से हाथ धो चुके हैं। भारत में भी हालत बेहद खराब हैं। यह 1930 के बाद मंदी की सबसे बड़ी मार है। 1930 को हम मं से किसी ने नहीं देखा और न ही उस समय की मंदी के व्यापक फलक की जानकारी है लेकिन कहा जाता है कि उस समय कई लोग भूख से मर गए। विशेषज्ञ कह रहे हैं कि मंदी की यह महादशा अभी जारी रहेगी। तमाम कंपनियों से बिना किसी कायदे और कानून के कर्मचारी और मजदूरों को निकाला जा रहा है। मजा यह है कि कोई भी संगठन उद्योगपतियों की इस बेहिसाब कार्रवाई पर उनसे हिसाब मांगता नहीं दिख रहा है। आखिर इसका मतलब क्या है।याद कीजिए 1995 के आसपास के दिन। दुनिया और खासतौर पर भारत बदल रहा था। ग्लोबलाइजेशन की गूंज। ऐसी कि कुछ दूसरा सूझ ही नहीं रहा था। आस आदमी को भी लग रहा था कि उसकी तरक्की की राह रूकी पड़ी है। इसके कुछ सालों में ही हर देशवासी के पास आसानी से पैसे की आवक भी शुरू हो गई। आसानी से नौकरी मिलने लगीं। न ही सरकारी प्राइवेट ही सही। तनख्वाह मोटी हुईं और आम वर्ग भी सुविधा संपन्न की श्रेणी में आने लगा। देश में अमीरों की संख्या में बढ़त्तरी हुई। गरीबी कितनी बढ़ी किसी को दिलचस्पी की नहीं रही। ठीक यही वह समय था जब मजदूर और कर्मचारियों ने ट्रेड यूनियनों को अव्यवहारिक प्रतिगामी बताना शुरू कर दिया। उद्योगपति में उसे देवता नजर आने लगे। ट्रेड यूनियनों की मौजूदगी को बकवास करार दिया जाने लगा। इस स्थिति पर निर्णायक चोट की पूंजीपतियों की हितैषी सरकारों ने। ऐसे नियम और कायदे बनाए गए जिससे ट्रेड यूनियन सिकुड़ती गईं। कानून का सहारा लेकर ऐसी व्याख्याएं की गईं जिससे हड़ताल जैसे मौलिक अधिकार को गैरजरूरी और गैरकानूनी बताया गया। ट्रेड यूनियन के नेता न केवल हताश हुए बल्कि कई जगह उनकी उपस्थिति ही खत्म हो गई। ऐसे हालात में जाहिर है कि इस मंदी में आम आदमी की टूटती कमर पर अगर धन और मुनाफे के भूखे उद्योगपति वार कर रहे हैं तो उसे रोकने वाला कोई नहीं है। विरोध तो छोडि़ए कामगार इतना असंगठित और बिखरा हुआ है कि उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। किंकर्तव्यविमूढञ की स्थिति में बेकार होने के अलावा कोई चारा ही नहीं है। सरकार है कि पहले ही छंटनी के रास्ते साफ कर चुकी है। ऐसे में प्रशासनिक सुधार आयोग जिसका स्वर कहता है कि अगर बॉस खुश नहीं तो नौकरी की सलामती नहीं। प्रशासनिक सुधार आयोग नाकारा नौकरशाही पर कितना अंकुश लगा पाएगा पता नहीं लेकिन इससे कर्मचारी और खासतौर पर महिला कर्मचारी के शोषण का एक रास्ता जरूर खुल जाएगा।

Monday 8 December, 2008

हवा हो गई इंजीनियरिंग

भाई लोग कुछ ज्यादा ही सोच गए। इतना ज्यादा की सोशल से सरोकार ही नहीं रहा। अब सोशल यांत्रिकी की हवा निकल गई है, यह भाई लोगों की समझ में आ गया होगा। मध्यप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में हाथी को झूमाने की बात करने वाले बड़ी शेखी मार रहे थे। मध्यप्रदेश में दो माह तो जैसे उत्तरप्रदेश की पूरी सरकार ही उतार दी गई थी। शेखीखोरों में भी खूब ऊंची-ऊंची मारी। एक सबसे बड़े अखबार के बड़े रिपोर्टर ने तो मध्यप्रदेश के एक पूरे हिस्से में हाथी के झूमने के दावे कर डाले थे। सच्चाई सामने है। बसपा प्रदेश में वह नहीं कर सकी जिसके बूते बहनजी दिल्ली की बारी देख रही थीं। मैने लगभग दो माह पहले ही मायावती के सोशल इंजीनियरिंग का मध्यप्रदेश के चुनाव में होने वाले हश्र के बारे में इसी ब्लाग में लिखा था। तब मैने कहा था कि इसका बहुत बड़ा असर पड़ने नहीं जा रहा है। बात साफ है कि इस प्रदेश में दलित आज भी कांग्रेस से अपना जुड़ाव महसूस करता है। वही हुआ भ। मैं अपनी इस बात तो एक उदाहरण से समझाने की कोशिश करूंगा। मध्यप्रदेश का एक जिला है मुरैना। बीते चुनाव में इस इलाके में बसपा का खासा जोर रहा था। एक बार तो इस जिले की तीन सीटों पर बसपा ने कब्जा किया था। इस बार ग्वालियर और चंबल दो संभागों को मिलाकर बसपा चार सीटे ही जीत पाई है। मुरैना जिले की सबलगढञ सीट पर बसपा ने इस बार नौजवान चंद्रप्रकाश शर्मा को मौका दिया था। गणित भी ठीक था। इस सीट पर अगर दलित और ब्राह्मण मतदाता को जोड़ दिया जाए तो बसपा की जीत पक्की थी। मगर हुआ उलटा। बसपा इस सीट पर तीसरे नंबर पर रही। सीट गई कांग्रेस के उस प्रत्याशी के पास जिसे हमारे उस बड़े अखबार के बड़े पत्रकार कमजोर मान रहे थे। वोट का आंकड़ा भी अप्रत्याशित रहा। इसका कारण रहा दलित वोट का कांग्रेस के पाले में झुकाव। कमोवेश यही हाल जौरा का है। यहां बसपा जीती जरूर लेकिन सोशल इंजीनियरिंग की वजह से नहीं। इस सीट पर कुशवाहा समाज का बसपा का जबरदस्त समर्थन रहा। यही इस बार भी हुआ है। मध्यप्रदेश में बसपा ने इस चुनाव में सात सीटे जीती हैं। बसपा इसे अपनी बड़ी जीत मान रही है। हालांकि इतनी सीटे वह प्रदेश में पहले भी जीत चुकी है। यह आंकड़े उत्साहित करने वाले तो कतई नहीं हैं। मध्यप्रदेश की जनता ने एक बार फिर दिखा दिया है कि वह देखती सबकी है लेकिन करती हमेशा मन की है। उनके दिलों में राजनेता उत्तरप्रदेश की तरह जातीय विद्वेष की खटास और जीभ लपलपाती सत्ता का अंग होने की लिप्सा नहीं भर सके हैं। कह सकते हैं कि अभी बहन जी को और इंतजार करना होगा। वैसे भी जहां-जहां सपा है बस वहीं बसपा है। कारण बसपा और सपा को एक जैसी जमीन से ही राजनीति की खुराक मिलती है जो कमोवेश अभी मध्यप्रदेश में नहीं है।

Wednesday 3 December, 2008

मीडिया की यह कैसी जवाबदेही

आखिर अच्युतानंदन ने माफी मांग ली। इसके बाद शहीदों के सम्मान को क्षति पहुंचाने वाले उनके बयान की कहानी का यही अंत हो जाना चाहिए। मुंबई पर आतंकी हमले के बाद मीडिया खासकर विजुअल मीडिया ने जो संसार रहा है उसमें किसी को भी हीरो से जीरो और जीरो से हीरो बनाने की काफी गुंजाइश है। असल में इस हमले के बाद आवेग और उत्सुकता का जो स्पेस बनाया गया है उसमें ठहर कर सोचने का समय किसी के पास नहीं है। कम से कम दो मामले में विजुअल मीडिया की कवरेज जवाबदेही के घेरे में अवश्य खड़ी की जा सकने योग्य है। इसमें कोई शक और सुबहा नहीं कि भारतीय जांबाजों ने अपनी जान पर खेलकर आतंकियों से लोहा लिया। इस हमले में शहीदों के प्रति देशवासियों के दिलों में सम्मान की जो लहर उठी है उसका सुबूत हर ओर दिख रहा है। सवाल यह है कि क्या देशभक्ति का एकमात्र सुबूत जान देना ही है। अगर नहीं तो फिर यहां ठहरकर विचार करने की जरूरत है। अच्युतानंद छह दशक से भी अधिक समय से देश की राजनीति में सक्रिय हैं। आप उनकी विचारधारा से सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठा सकते। आज की पंक राजनीति के दौर में अच्युतानंद केरल सहित देश के उन चंद राजनेताओं में शुमार है, जिनका नाम सम्मान से लिया जाता है। वह देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले लोगों में शुमार रहे हैं। वह केरल के सीएम हैं। ऐसे में व्यक्ति का अपमान हुआ तो मीडिया ने क्या किया। जबकि आवेश में दिए गए बयान को लेकर उसने उनको खलनायक बना डाला। उनके बयान को तरीके से पेश किया गया मानो देश और देशवासियों के लिए इस व्यक्ति के दिल में कोई सम्मान नहीं है। जबकि देश की आजादी के लिए कई बार जेल जा चुके इस शख्स ने केरल के किसानों और मजदूरों के सम्मान और बेहतरी के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। इस मामले में मीडिया ने जो भी किया उससे तो यही लगता है कि लोकतंत्र बहुत बुरी चीज है और इससे अच्छा मिलिट्री राज है। मगर जरा ठहरिए, मिलिट्री के मायने और उनकी देशभक्ति क्या दुश्मन की गोली के मायने और उनकी देशभक्ति क्या दुश्मन की गोली खाकर मर जाना है। क्या पूर्वोतर राज्यों और जम्मू में मिलिट्री को लेकर सालों से जो सवाल खड़े किए जा रहे है वह भी क्या देशभक्ति की श्रेणी में आता है। सेवा के विभिन्न घटकों में फैले भ्रष्टाचार से हम अनजान हैं। ऐसे में मैनपुरी के लेफ्टीनेंट चौहान को याद करना चाहिए, जो अपने ही साथियों के बुने जाल में 18 साल तक उलझे रहे। इस देश में न जाने ऐसे कितने चौहान होंगे और अगर गोली खाकर मरना ही देशभक्ति है तो फिर अकेले उन्नीकृष्णन ही क्यों गजेंद्र ने भी सीने में गोली खाई। क्या गजेंद्र को लेकर मीडिया उतनी ही सजग दिखाई दी जितनी उन्नीकृष्णन को लेकर। असल में यह मध्यमवर्गी सोच है, जो हर मसले का हल दूसरे को गाली देकर ही ढूंढना चाहती है। इस मामले में मीडिया का जो रुख रहा वह लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालने जैसा है। यह हिटलरशाही का प्रतीक भी है। अच्युतानंद ने जो बात कही उसको समझने की कोशिश तक नहीं की गई। उनके जिस शब्द को लेकर आलोचना हो रही है, वह तो उन्होंने खुद के लिए कहा था।एक क्षण के लिए अच्युतानंद को छोड़कर रामगोपाल वर्मा उर्फ रामू के मसले पर लौटते हैं। अभी तक एक भी सुबूत ऐसा नहीं पेश किया गया है जिससे यह लगे कि रामू ताज में अपनी किसी फिल्म का लोकेशन देखने गए थे। इसके बावजूद मीडिया ने रामू के विरोध में पूरे बालीवुड को खड़ा कर दिया। उनका दोष क्या केवल इतना भर नहीं है कि महाराष्ट्र के मुखिया उनसे परिचित है। अन्य लोगों की तरह वह ताज में आतंक के बाकी बचे निशान को देखने गए थे। मगर मीडिया को सनसनी की जरूरत थी सो उसने फैला दी। असल में विजुअल मीडिया का दर्द यह है कि ताज में आपरेशन खत्म होने के बाद होटल के दरवाजे उनके लिए नहीं खोले गए। इससे उनको ऐसे विजुअल नहीं मिले जिनके सहारे वह अपने चैनल की टीआरपी बढ़ा सकते थे। इसलिए इन चैनलों ने सनसनी क्रिएट करने का दूसरा तरीका अख्तियार कर लिया और नतीजा हमारे सामने है।देश के इस सबसे संकट के क्षण में विजुआल मीडिया का रुख बेहद गैरजिम्मेदाराना रहा है। उनके रिपोर्टरों और एंकरों में वैसी गंभीरता नहीं दिखाई दी, जैसी इस क्षण में अपेक्षित थी। उनमें जानकारी का भी बेहद अभाव था। इस हमले को लेकर नेताओं के लिए इस्तेमाल की गई शब्दावली और पूरी घटना को हाइप बनाने के उनके प्रयास यह साबित करते हैं कि विजुअल मीडिया के लिए अगर सबसे ऊपर कोई चीज है, तो वह सिर्फ सनसनी है।

Thursday 24 July, 2008

सोमनाथ के बहाने


सोमनाथ चटर्जी के साथ जो हुआ उसने एक नई बहस को जन्म दिया है। मजे की बात यह है कि यह बहस उस पार्टी के अंदर नहीं चल रही है जिससे सोम संबंध रखते हैं (थे), बल्कि पार्टी के बाहर सोमनाथ दा के तमाम हितैषी एकाएक खड़े हो गए हैं। इनमें से अधिकांश अखबार वाले हैं और ये वही लोग हैं जो सुप्रीम कोर्ट से सोम दा के टकराव पर उनकी चुटकी लेते दिखाई देने लगे थे। सवाल उठता है कि उन लोगों को अचानक उनमें मासूमियत क्यों दिखाई देने लगी है। एकाएक सोमनाथ चटर्जी या स्पीकर उनके लिए सोम दा कैसे हो गए। किसी भी पार्टी द्वारा उसके सदस्य पर की गई कार्रवाई पार्टी का आंतरिक मामला होता है। सोमनाथ के मामले में अखबार और चैनल क्यों अधिक स्यापा करते नजर आ रहे हैं। कहीं यह एक पार्टी और उसके वैचारिक सिद्धांत को बदनाम करने की सोची समझी चाल तो नहीं। मीडिया का ऐसा ही कुछ रुप नेपाल में राजतंत्र की समाप्ति और कम्युनिस्टों की बढ़ती ताकत पर दिखाई दिया। तब लगा जैसे नेपाल में राजतंत्र का खत्म होना घोर पाप कर्म है और उसको करने वाले प्रचंड और उनके साथी पापी। मजे की बात यह देखो कि जब नेपाल में राजतंत्र के विरोध की बात होती है तो उसका श्रेय नेपाली कांग्रेस को दिया जाता है और जब राजा के अधिकार को खत्म करने की बात होती है तो उसका दोष प्रचंड पर मढ़ा जाता है। यानी कि मीठा-मीठा गप्प और कड़वा थू। खैर शायद में भटक रहा हूं मगर मुझे लगता है कि इन दोनों ही मामलों में मीडिया का कर्म तटस्थता या कहें दोनो पक्षों को समानता देने का नहीं रहा है। क्रांतिकारी सोमनाथ ने अपने कामकाज से आम आदमी के दिल में जो जगह बनाई है उसे सभी जानते हैं। सुप्रीम कोर्ट से टकराव के मामले में तो वह हीरो की तरह ही उभरे। जनता में उपजी इस सहानुभूति को माकपा को बदनाम करने के हथियार के रूप में तो नहीं किया जा रहा है। क्या यह अखबार और चैनल में बैठे माकपा विरोध की बुर्जुआ मानसिकता नहीं है। अगर नहीं तो फिर एक घटना को याद कीजिए। भाजपा ने अपने वरिष्ट साथी मदन लाल खुराना को पार्टी से निष्कासित किया। खुराना पार्टी के प्रति निष्टावान रहे। सोम दा की तरह वह भी काफी पुराने कार्यकर्ता थे। तक किसी अखबार या चैनल ने इस तरह की लाइन क्यों नहीं लिखी कि 40 सालों का साथ भूला दिया। सोमनाथ पर कार्रवाई उनका जन्मदिन देखकर तो पार्टी ने नहीं की होगी फिर क्यों उनके समाचार में जन्मदिन की संवेदनाओं को उभारने की कोशिश की गई। लगभग सभी अखबार और चैनल ने यह किया तो क्या सोम दा के सहारे माकपा को खलनायक बनाने का खेल खेला जा रहा है। सोमनाथ से इस्तीफे के लिए माकपा के अंदर का मामला है। वह सदन के लिए स्पीकर हो सकते हैं लेकिन पार्टी के लिए तो वह कार्यकर्ता ही हैं। इसे सोमनाथ के पद से जोड़कर क्यों देखा जा रहा है। पार्टी अपने कार्यकर्ता को निर्देश दे सकती है। यह कार्यकर्ता पर है वह माने न माने। फिर पार्टी को तय करना होता है कि कार्यकर्ता के खिलाफ क्या किया जाए। और अंत में यह कि विरोध करने वालों को पहले माकपा के सांगठनिक ढांचे की समझ होना चाहिए। यह कोई लालू या मुलायम का दल नहीं है जहां व्यक्ति की श्रेष्ठता का सवाल हो। पार्टी की सैद्धांतिक सोच पर व्यक्ति की सोच हावी नहीं हो सकती है। माकपा इससे पहले भी पार्टी के वरिष्ठ लोगों के खिलाफ अनुशासन की कार्रवाई और उन्हें पार्टी लाईन पर चलने के निर्देश देती रही है। ज्योति बसु को इसी पार्टी नेतृत्व ने प्रधानमंत्री न बनने को कहा था तब ज्योति बसु ने न चाहते हुए भी निर्देश माना था।