Thursday 24 July, 2008

सोमनाथ के बहाने


सोमनाथ चटर्जी के साथ जो हुआ उसने एक नई बहस को जन्म दिया है। मजे की बात यह है कि यह बहस उस पार्टी के अंदर नहीं चल रही है जिससे सोम संबंध रखते हैं (थे), बल्कि पार्टी के बाहर सोमनाथ दा के तमाम हितैषी एकाएक खड़े हो गए हैं। इनमें से अधिकांश अखबार वाले हैं और ये वही लोग हैं जो सुप्रीम कोर्ट से सोम दा के टकराव पर उनकी चुटकी लेते दिखाई देने लगे थे। सवाल उठता है कि उन लोगों को अचानक उनमें मासूमियत क्यों दिखाई देने लगी है। एकाएक सोमनाथ चटर्जी या स्पीकर उनके लिए सोम दा कैसे हो गए। किसी भी पार्टी द्वारा उसके सदस्य पर की गई कार्रवाई पार्टी का आंतरिक मामला होता है। सोमनाथ के मामले में अखबार और चैनल क्यों अधिक स्यापा करते नजर आ रहे हैं। कहीं यह एक पार्टी और उसके वैचारिक सिद्धांत को बदनाम करने की सोची समझी चाल तो नहीं। मीडिया का ऐसा ही कुछ रुप नेपाल में राजतंत्र की समाप्ति और कम्युनिस्टों की बढ़ती ताकत पर दिखाई दिया। तब लगा जैसे नेपाल में राजतंत्र का खत्म होना घोर पाप कर्म है और उसको करने वाले प्रचंड और उनके साथी पापी। मजे की बात यह देखो कि जब नेपाल में राजतंत्र के विरोध की बात होती है तो उसका श्रेय नेपाली कांग्रेस को दिया जाता है और जब राजा के अधिकार को खत्म करने की बात होती है तो उसका दोष प्रचंड पर मढ़ा जाता है। यानी कि मीठा-मीठा गप्प और कड़वा थू। खैर शायद में भटक रहा हूं मगर मुझे लगता है कि इन दोनों ही मामलों में मीडिया का कर्म तटस्थता या कहें दोनो पक्षों को समानता देने का नहीं रहा है। क्रांतिकारी सोमनाथ ने अपने कामकाज से आम आदमी के दिल में जो जगह बनाई है उसे सभी जानते हैं। सुप्रीम कोर्ट से टकराव के मामले में तो वह हीरो की तरह ही उभरे। जनता में उपजी इस सहानुभूति को माकपा को बदनाम करने के हथियार के रूप में तो नहीं किया जा रहा है। क्या यह अखबार और चैनल में बैठे माकपा विरोध की बुर्जुआ मानसिकता नहीं है। अगर नहीं तो फिर एक घटना को याद कीजिए। भाजपा ने अपने वरिष्ट साथी मदन लाल खुराना को पार्टी से निष्कासित किया। खुराना पार्टी के प्रति निष्टावान रहे। सोम दा की तरह वह भी काफी पुराने कार्यकर्ता थे। तक किसी अखबार या चैनल ने इस तरह की लाइन क्यों नहीं लिखी कि 40 सालों का साथ भूला दिया। सोमनाथ पर कार्रवाई उनका जन्मदिन देखकर तो पार्टी ने नहीं की होगी फिर क्यों उनके समाचार में जन्मदिन की संवेदनाओं को उभारने की कोशिश की गई। लगभग सभी अखबार और चैनल ने यह किया तो क्या सोम दा के सहारे माकपा को खलनायक बनाने का खेल खेला जा रहा है। सोमनाथ से इस्तीफे के लिए माकपा के अंदर का मामला है। वह सदन के लिए स्पीकर हो सकते हैं लेकिन पार्टी के लिए तो वह कार्यकर्ता ही हैं। इसे सोमनाथ के पद से जोड़कर क्यों देखा जा रहा है। पार्टी अपने कार्यकर्ता को निर्देश दे सकती है। यह कार्यकर्ता पर है वह माने न माने। फिर पार्टी को तय करना होता है कि कार्यकर्ता के खिलाफ क्या किया जाए। और अंत में यह कि विरोध करने वालों को पहले माकपा के सांगठनिक ढांचे की समझ होना चाहिए। यह कोई लालू या मुलायम का दल नहीं है जहां व्यक्ति की श्रेष्ठता का सवाल हो। पार्टी की सैद्धांतिक सोच पर व्यक्ति की सोच हावी नहीं हो सकती है। माकपा इससे पहले भी पार्टी के वरिष्ठ लोगों के खिलाफ अनुशासन की कार्रवाई और उन्हें पार्टी लाईन पर चलने के निर्देश देती रही है। ज्योति बसु को इसी पार्टी नेतृत्व ने प्रधानमंत्री न बनने को कहा था तब ज्योति बसु ने न चाहते हुए भी निर्देश माना था।

Wednesday 9 July, 2008

अब ब्राह्मणों की बारी

इस बार आरक्षण की मुहिम दक्षिण भारत से उठी है। लक्ष्य है इस मुद्दे पर देश भर के ब्राह्मणों को एकजुट करना। इसकी कमान संभाली है दक्षिण भारत के छोटे से गांव के अय्यर परिवार ने। पिता-पुत्र दोनों ही इन दिनों ब्राह्मणों की राय लेने के लिए उत्तरप्रदेश के दौरे पर हैं। वह अब तक कई जिलों में घूमकर आधा सैकड़ा से अधिक बैठकों में रायशुमारी कर चुके हैं। इसके साथ ही देश भर में कितने तरह के ब्राह्मण हैं इसका भी लेखाजोखा तैयार किया जा रहा है।कर्नाटक के बैंगलोर में रहने वाले एम एस शंकर अय्यर और उनके पिता एमएस मनी अय्यर इन दिनों उत्तर प्रदेश के दौरे पर हैं। यह अय्यर पिता-पुत्र कभी केरल के पालघाट का निवासी था। यह वही गांव है जहां से एक तेज तर्रार मुख्य चुनाव आयुक्त थे। अय्यर अयंगर ब्राह्मण होते हैं। इनकी केरल में मजबूत लॉबी है। कर्नाटक में बस चुके यह लोग कर्नाटक ब्राह्मण सभा से जुड़े हैं। पुत्र एक प्रतिष्ठित कंप्यूटर साफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत है।अय्यर पिता-पुत्र अब तक प्रदेश के 35 से अधिक जिलों का दौरा कर ब्राह्मणों में आरक्षण की आग सुलगा चुके हैं। पहली बार मिलने पर अय्यर किसी को यही बताते हैं कि वह देश भर में कितने तरह के ब्राह्मण हैं यह जानने को निकले हैं। बातों का सिलसिला आगे बढ़ता है तो फिर आरक्षण की बात खुलकर कहते हैं। यह भी कहते हैं कि देश भर में ब्राह्मणों की दशा का अध्ययन करने के बाद इंटरनेट पर ब्लॉग जैसा कुछ करना है। हालांकि अभी इसकी रुपरेखा तय नहीं है। किसी भी शहर में यह दो या फिर तीन दिन रुकते हैं। लोगों से व्यक्तिगत बातें करते हैं और बातों का यह सिलसिला अपनों में फैलाने का संदेश भी देते हैं। बात मतलब की होती है सो तेजी से शहर के ब्राह्मण आगंतुकों से मिलते हैं। फिर अगले दिन बैठक बुला ली जाती है। इन बैठकों में बकायदा मोरचा बनाने और शहर में कमेटी गठित करने की बात होती है। बातों का लब्बोलुबाब आरक्षण ही होता है। बकौल शंकर अय्यर अब तक वह प्रदेश के 35 जिलों का दौरा कर चुके हैं। वह अपनी बात पहले छोटे शहरों के लोगों में फैले सजातीयों तक पहुंचा रहे हैं। इसके साथ ही दिसंबर की 15, 16, 17 को बंगलौर में होने वाले कर्नाटक ब्राह्मण सभा के सम्मेलन में भी आने का बुलावा दे रहे हैं। उनके मुताबिक लोग उनकी बात सुन रहे हैं। कमेटी बनाने को लेकर उत्साह देखने को मिल रहा है। मणि के मुताबिक इस प्रदेश के लोग उन्हें ध्यान से सुन रहे हैं इससे उनका हौसला बढ़ा है।