Monday 7 April, 2008

रिश्ते और मैं

कभी हो नहीं सके विलेय,
जैसे घुलती है हवा,
सासों के साथ लहू में,
आवाज खोती हैं लहरें,
जैसे किनारों से टकराकर,
मैं खो नहीं सका ऐसे, रिश्तों के भंवर में।
रिश्ते, जो बुलाते हैं आज भी
लिए हाथों में शर्तों की लंबी फेहरिस्त,
कि तुम मानोगे इसे,
अपने सारे निज को भूलकर,
कि तुम्हारी मान्यताएं और तुम,
बंध सको उनके बंधनवार में,
तो आओ, स्वागत है तुम्हारा
एक अजब से खेल में।

मेरी कशिश

मेरी कशिश
उस दुनिया में,
नहीं पहुंच पाती,
हमारी साधारण नजर।
जहां ऊपर और ऊपर,
उठने के लिए,
बिछाई जाती हैं,
दधीचि पटरियां।
होकर सवार जिन पर,
पाते हैं वे अपनी मंजिल।
अपने नुकीले डंकों से,
चूसते हैं हमारा लहू,
शिराओं में दौड़ता खूं,
अचानक, हो उठता है कसैला,
हरकत में आता है समूचा बदन,
कशमशाकर ठंडा पड़ने के लिए।
ऐसे दमघोंटू माहौल में,
उधार की एड़ियों के सहारे,
तोड़ लेना चाहता हूं तारे।।

मेरा सपना
मैं आखिर चाहता क्या हूं.
नीले फूल, पीली घाटियां,
भरा हुआ पूल या लहलहाती बालियां।
चलता हूं, घूमता हूं,इनसे गुजरता हूं,
चितकबरे रास्तों से होता हुआ।
हरेक कदम जीत का,कदम बोसा बनता हुआ।
धुआं सा तैरता है,
गर्व करता रहा,
अपनी उस सोच पर,
जिसकी कुकरमुत्ते जैसी शाख पर,
सवार होकर,
जीत लेना चाहता हूं दुनिया।
सोचता हूं,
जीतने में वह सुख नहीं,
जो पूल में सिर डालकर,
पैरों को थका डालने में हैं,
जीतने में मैं उसका,
सब हरण कर लेता हूं।
सपना, अपना,
और मेरे साथ होता है,
हारे हुए का शव,
क्या मैं शव का साथ चाहता हूं।
नहीं,फिर भी लुभाती है,
फिर-फिर लुभाती है,
हवा की रवानी में,
उड़ती रंग-बिरंगी,
तितलियां और थिरकते मोर।।