Wednesday 27 February, 2008

गाली का संगीत

वैसे बुरी नहीं है गाली। इसका अपना ही संगीत है अपनी ताल। यह तो सुनने वाले पर है की वह कितने सप्तक गह सकता है, झेल लेता है समझ सकता है। पहले बात गाली के संगीत की। गा - ली यानी जिसे गाया जा सकता हो और उसमे संगीत , धुन न हो भला कैसे संभव है। तो गाली और संगीत में वही है जो ताल और लात में। ताल बिन संगीत कैसा और लात बिना गाली का मजा आ ही नहीं सकता। ताल में बस शब्द बदलिए और देखिए चमत्कार लात हाजिर। तो शुरू रहिये ताल और लात के सुखद समायोजन में। भगवान आप का भला करेगा। जीवन को ताल दे न दे लात जरूर देगा।

Monday 25 February, 2008

बदलो हथियार

तो जरूरी चीज हैं ताकत। लड़ सकने की ichachha का स्केल। सवाल यह हैं कि हमारी ladai क्या हैं और उसके औजार क्या होंगे । उसके निशाने पर कौन हैं। न न न ..... यह नहीं कह सकते हैं कि हम नहीं लड़ते। नहीं लड़ते तो यह गाली गलौज क्यों, यह गुस्सा क्यों, यह भड़ास क्यों। तो हमारे हथियार कुछ भी हो सकते हैं लेकिन गाली गलौज तो कतई नही। chuk जाने कि निशानी हैं गाली। अपने ही पर खीजने का क्रोध तत्त्व। चलो, गाली भी दिए देते हैं लेकिन क्या उससे गाली देने वाले का कुछ नहीं jata हैं। गाली देते हुए वह कहीं गहरे छिजता नहीं, खाली नहीं होता इस प्रक्रिया में एक बड़ी चीज जाती हैं और वह हैं उर्जा , गुस्से की taap। इसी ताप को तो बचाने की जरूरत है। आख़िर इसी ताप का तो संग्रह हमारी ताकत में ढलता है। एक मानसिक दृढ़ता , हमले सहने की क्षमता इसी ताप से पैदा होती है। तो हम गाली गलौज नहीं करेंगे। इसका कोई यह मतलब कदापि न लगाएं की हमें गाली नहीं आती, कि हम बचाव के रास्ते तलाश रहें हैं, कि हम लड़ना नहीं चाहते। हम लडेंगे, उन सभी सवालों से जिनके कश्मकश से आप हम यहाँ हैं, लेकिन हमारी धारणा पलायन की कतई नहीं है। हम व्यूह में रहकर उसके पेंच खोलने कि कला सीखना चाहते हैं। इसके लिए जरूरी है कि सहने की ताकत। हम जानते हैं कि कुछ लोग इस पर टिप्पणी भी देंगे कि ................ में घुसे तुम्हारी फिलासफी तुमसे किसने कहा कि यहाँ आकर .......... मराओ । जान लीजिये - मैं बीहडी हूँ। मुरैना से लेकर औरैया तक मैंने चम्बल के बीहड़ को देखा है, उनमे घूमा हूँ, रातें बिताई है, उन्हें जिया है। इसलिए लड़ने कि कला मुझे आती है। यह बानी कि रवानी है। मगर वैसे नहीं जैसे कुछ लोग ब्लॉग पर लीद कर रहें हैं। इस तरह हगने का क्या फायदा। अपने ही आप पीठ ठोकना और इस अकड़ से घूमना कि हम किसी कि नहीं मानते। ........... तो घूमिये जनाब। मगर जरा ठहर जाइए, आप में से कई मेरे अग्रज हैं । वे भी जानते हैं कि बदलाव ऐसे नहीं आते मगर वह इसे स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। या फिर यह कहें कि कुंठित मन उनको ऐसा करने से रोकता है। सो कुंठा में तो गालियाँ ही निकलेंगी। अगर 'पाश' की कविता में कहें ---- ओ, अपनी प्रेमिकाओं को प्रेम पत्र लिखने वालों, अगर तुम्हारी कलम की नोंक बांझ है तो कृपया कागजों पर गर्भपात न करें ।

Thursday 21 February, 2008

कुछ अपने बारे में

लो, मैं हाजिर हूँ। बहुत दिन से कोशिश कर रहा था आपके बीच आने की। यह तकनीकि ज्ञान की कमी थी जिसने अब तक मुझे रोके रखा। कोशिश रंग लाई और में बनने में सफल रहा। कुकुरमुत्ता की तरह मैं आपके बीच उग आया हूँ। न न न... साधारण चीज नही है कुकुरमुत्ता, जीवन की शक्ति है, पत्थर का सीना फाड़ने की ताकत है कुकुरमुत्ता। निराला का प्रिय विषय है कुकुरमुत्ता। मैं ऐसा कोई दावा नही करता। मेरी पत्रकारिता की यात्रा में मेरे ऊपर दो यशवंत का असर है। पहले यशवंत व्यास और दूसरे यशवंत सिंह । व्यास जी मुझे जयपुर में मिले, तब मैं दैनिक भास्कर में था और व्यास जी दैनिक नवज्योति के संपादक थे। यशवंत सिंह मेरे लिए एक मायने में द्रोणाचार्य है। उन्ही की हस्तलिपि से मैं पेज मेकिंग सीख सका। शायद ये बात यशवंत सिंह को भी नही मालूम । मैं जब अमर उजाला कानपुर पहुँचा वे जा चुके थे। मिला उनका लिखा एक कागज । कैसे सीखें पेज बनाना । यहाँ बस इतना ही बाकी फ़िर कभी।