Monday 7 April, 2008

मेरी कशिश

मेरी कशिश
उस दुनिया में,
नहीं पहुंच पाती,
हमारी साधारण नजर।
जहां ऊपर और ऊपर,
उठने के लिए,
बिछाई जाती हैं,
दधीचि पटरियां।
होकर सवार जिन पर,
पाते हैं वे अपनी मंजिल।
अपने नुकीले डंकों से,
चूसते हैं हमारा लहू,
शिराओं में दौड़ता खूं,
अचानक, हो उठता है कसैला,
हरकत में आता है समूचा बदन,
कशमशाकर ठंडा पड़ने के लिए।
ऐसे दमघोंटू माहौल में,
उधार की एड़ियों के सहारे,
तोड़ लेना चाहता हूं तारे।।

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