Thursday, 22 March 2012

आधा तीतर और आधा बटेर क्यों है पत्रकार

यह मीडिया में ही संऽाव है। खुद से सवाल पूछना और फिर उनके उत्तर तलाशना। मीडिया के अलावा शायद ही किसी संस्थान में यह हो कि वह खुद ही से ही लघ्ता ­झगघ्ता और फिर नए रास्ते तलाशता आगे बघ्े। यही कारण है कि मीडिया तमाम अंतरविरोधों के बाद ऽाी अपने समकक्ष संस्थानों के सामने मजबूती से खघ है। मीडिया के अंदर समाचार के कंटेंट, सरोकार, मानवीय मूल्यों के लिए बहस लंबे समय से रही है। यह हर स्तर और हर पक्ष पर लगातार जारी है।
ह्यमीडिया में मानवीय सरोकारों पर काम नहीं हो रहाह्ण जब हम यह कहते हैं तो अधूरा वाक्य बोलते हैं। शायद इसके पीछे ऽााव यह होता है कि पहले ऐसा होता था और आज ऐसा नहीं हो रहा है। अर्थात इसका अनुवाद यह हुआ कि समाचार संकलन में लगा एक रिपोर्टर मानवीय मूल्यों ऽाूख, गरीबी, बेकारी, दुखों पर वह खबरें तैयार नहीं कर पा रहा है जो उसे करनी चाहिए। सवाल उठता है तो फिर वह कर क्या रहा है। और यदि वह नहीं कर रहा है जिसकी उससे अपेक्षा की जा रही है या यूं कहें कि वह वह नहीं कर रहा जो उसे करना चाहिए तो इसकी जिम्मेदारी किस पर है। सिर्फ उस पत्रकार पर? या फिर उस संस्थान पर ऽाी जिसमें वह सेवा दे रहा है। आखिर उसके ऐसा न कर पाने के लिए क्या वह पूंजीपति मालिक जिम्मेदार नहीं है जिसके लिए वह काम कर रहा है।
वैश्विक मूल्यों को लेकर वैश्विक सिलसिले तलाशने की अऽिालाषा में विकाशील देशों के पूंजीपतियों ने वही रुख अख्तियार किया जो अमेरिकी या अमेरिकापरस्त धनपशु उठा रहे हैं। नतीजतन मूल्यों की वह विरासत जो ऽााषा की क्यारियों में गोघ्कर बघ्ी की जाती हैं वे सूख गईं। हिंदी की अपनी शैली है और परपंरा ऽाी लिहाजा हिंदी कऽाी अंग्रेजी या दूसरी विदेशी ऽााषाओं की तरह पक्षधरिता की समस्या से जूझती नहीं रही। हिंदी की पत्रकारिता में काल का फर्क हो सकता है, लेकिन सरोकारों का फर्क कऽाी नहीं रहा। लेकिन अंग्रेजी से आयातित मूल्य विधा ने हिंदी की पत्रकारिता को ऽाी पक्षधरिता की समस्या में उलझा दिया। जैसे कोई यह प्रशन पूछे कि एक सरोवर में नौका स्पर्धा हो रही है उसमें एक नौका किसी बघ्ी सिगरेट कंपनी की है और दूसरी नौका मल्लाहों की है। अब अगर आपसे पूछा जाए कि कौन सी नौका जीतेगी तो इसका उत्तर ही आपकी पक्षधारिता का आईना होगा।
आप अगर सिगरेट कंपनी की नौका के साथ हैं तो जाहिर है आप पूंजीपति व्यवस्था के समर्थक हैं और अगर मल्लाहों की नौका की तरफ हैं तो जाहिर है कि आप श्रम और मेहनत के पक्ष में खघ्े हैं।

दरअसल मीडिया के कामकाज और उसके सरोकारों पर चर्चा करते समय हम उसकी स्थिति और दबावों पर ध्यान नहीं देते या फिर जानबूझकर उसे अनदेखा करते हैं। समय के दबाव में उपजी आज की स्थिति ने फटाफट पत्रकारिता के चेहरे पर ऽाी नए चेहरे को उजागर किया। यह वह तथ्य है जिसने कंटेंट का कचूमर निकाल दिया है।
हिंदी प्रिंट पत्रकारिता में जिला संस्करण का दौर शुरू होने के साथ ही समय का दबाव का संकट पत्रकारिता का नया पहलू बनकर उऽारा। जिला संस्करण की परिपाटी शुरू कर हिंदी अखबारों ने पाठकों की संख्या और अपने धंधे में बेहतरीन विकास किया लेकिन उसके मालिकों ने पत्रकारों की स्थिति और कामकाज की स्थितियों पर बिल्कुल ऽाी ध्यान नहीं दिया यानी वह पत्रकार जो पत्रकारिता के इस नए विकास की सबसे विधायी और जरूरी कघ्ी थी और जिसने हिंदी पत्रकारिता के विकास के इस नए युग की बुनियाद रखी उसे ऽाूला दिया गया और उसे उसके हाल पर छोघ् दिया गया। दूसरे शब्दों में कहें तो मालिकों की जेबें तो ऽारी लेकिन पत्रकारों को ज्यादा लाऽा नहीं दिया। न अकादमिक क्रम में और न ही व्यवसायिक क्रम में। मुक्त अर्थव्यवस्था के साथ ही हिंदी मीडिया में कई संस्करणों वाले समूह तेजी से बघ्े। इन समूहों ने अपने कामकाज को जिला और तहसील स्तर पर फैलाया। हर जिले के लिए इन पत्रों ने दो और तीन पेज और कहीं-कहीं इसके ऽाी अधिक पेज निर्धारित किए गए। सोच यह थी कि स्थान अधिक मिलने से स्थानीय खबरें, पाठकों की जरूरत को अधिक आसानी से पूरा कर सकेंगे और पाठ्य सामग्री बघ्ेगी। तो जाहिर है कि पाठकों की संख्या बघ्ेगी। पाठकों की संख्या बघ्ी ऽाी लेकिन मानवीय सरोकारों का इसमें सिरे से अऽााव रहा। अखबारों ने अपने कलेवर को सुधार कर यह काम किया लेकिन लंबे समय तक कलेवर के दम पर पाठकों को नहीं बाधा जा सकता। इसलिए आज फिर कंटेंट की चर्चा है। आखिर चूक कहां हुई। दरअसल इन मीडिया घरानों ने इस काम के लिए जिले पर अपने जिन पत्रकारों की नियुक्ति की और जो मीडिया के कंटेट को बेहतर बनाने के लिए उत्तरदायी थे उनकी बेहतर स्थिति के लिए कोई ऽाी उत्तरदायित्व लेने को तैयार नहीं हुआ। ऐसे तमाम जिले थे जहां दो या तीन पत्रकारों को ही तीन-तीन पेजों का स्पेस ऽारने के लिए खबरें लिखनी होती थीं। एक पेज की खबर का अर्थ है उसे 40 हजार कैरेक्टर लिखने होते थे। इसके लिए उसे सुबह 10 बजे से ही अपने काम की शुरूआत करनी होती थी जो रात के 10 या 11 बजे ही खत्म होती। इस बीच में मुख्यालय से मिलने वाली स्टोरी लाइन और पैकेज पत्रकारिता के नाम पर शुरू हुई डेस्क की दादागिरी ऽाी उसे झेलनी होती। इस काम के एवज में उसे मिलने होते थे 5 से लेकर 8 हजार रुपये। यानी उसके 12 घंटे काम की कीमत। यह वह कीमत है जिसमें उसे मोबाइल और पेट्रोल का खर्च ऽाी निकालना होता है। यानी एक खबर पर काम करने के लिए उसे अगर एक दिन में 50 किलोमीटर ऽाी मोटरसाइकिल पर जाना होता है तो उसे 70 रुपये खर्च करने होते हैं। महीने में अगर 10 दिन ऽाी उसे इस तरह काम करना पघ तो 1000 रुपये उसे महज पेट्रोल पर ही खर्च करने होंगे जिसका कोई रिटर्न उसे संस्था से नहीं मिलता। ऐसे में कई बार ऐसा होता है कि मानवीय मूल्यों पर काम करते हुए खुद दुख की गठरी बन जाता है। अब जरा इस बात को लालकृष्ण आडवाणी के सतना में दौरे के दौरान पत्रकारों के बीच बांटे गए लिफाफों की रोशनी में समझे। राडिया और बरखा के संबंधों पर चुप बैठे रहने वाले तथाकथित बघ्े पत्रकारों का सतना का संकट कही अधिक बघ लगता है। सवाल यह है कि आखिर उन पत्रकारों ने महज 500 रुपये का लिफाफा लेने में हिचक क्यों नहीं महसूस की। इसके लिए ऽाी मीडिया संस्थान के वही मालिक जिम्मेदार है जो उसे पेट्रोल की कीमत तक नहीं दे पाते। उससे काम तो ढेर सारा लेना चाहते हैं लेकिन उसकी दैनिक जरूरतों और संकटों से उन्हें कोई मतलब नहीं है।
दूसरी और जरूरी बात यह है कि मीडिया के मालिक बने फिरते धंधेबाज थैलीशाहों ने सरोकारों को सिरे से खारिज किया। इसीलिए आउटलुक जैसी पत्रिका के पहले संपादकीय में कहा गया कि यह आम आदमी के लिए नहीं। यह वर्ग विशेष की पत्रिका है। वर्ग विशेष अर्थात प्रऽाु वर्ग। प्रऽाु वर्ग अर्थात ऐसा वर्ग जो पैसे से, तिजारत से और हुकूमत से सीधा साबका रखता है, रसूखदार।
यही नहीं वह उस पत्रकार से काम के स्तर पर तो क्रांति कर देने की उम्मीद करते हैं लेकिन जब ऐसी ही साहसिक खबरों के खिलाफ ह्यचोरों की मंडलीह्ण सक्रिय होती है तो वह ऐसे पत्रकार से ही किनारा कर लेते है। तब वह पत्रकार कहा जाए। एक तो मानवीय और पत्रकारिता के मूल्यों के नाम पर वह समाज के रसूखदारों से टकराव ले चुका है और इधर उस संस्थान ने जिसे वह अपनी रोजी-रोजी मानता है उससे किनारा करना शुरू कर दिया। ऐसे में तमाम बहसजादा टाइप के संपादक, मानवीय मूल्यों की वकालत करने सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकारिता की बेहतरी का खंऽा ठोकने वाली प्रेस कौंसिल कोई ऽाी उसके बचाव में दिखाई नहीं देती।
मैं एक उदाहरण से अपनी बात को स्पष्ट करना चाहूंगा। बात उन दिनों की है जब मैं देश के एक बघ्े हिंदी अखबार में उत्तरप्रदेश में एक जिले का प्रऽाारी था। जिला न्यायालय से डकैती की एक फाइल गुम हो गई। यह फाइल इसलिए ऽाी महत्वपूर्ण थी कि इसमें आधा सैकघ लोग आरोपी थे। इसकी स्थानीय थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई गई। रिपोर्ट के एक दो दिन बाद ही यह फाइल इसी न्यायालय के एक जज की गाघ्ी से पुलिस ने बरामद की। इस पर मैने खबर लिखी। जाहिर है कि मामले की रिपोर्ट दर्ज हुई और बरामदगी दिखाई तो तथ्य साफ थे कि घटना हुई थी और इसी पर खबर लिखी गई। मगर इस खबर के बाद जिला जज बुरी तरह तिलमिला गए। वह इस कदर आपा खो बैठे कि अपने लेटरहैड पर न्यायालय की मुहर के साथ मुझे इस आशय का पत्र लिखा कि वह मेरी जिंदगी तबाह कर देंगे। यही नहीं उन्होंने मेरे तत्कालीन संपादक को इसकी शिकायत ऽाी की। चूंकि मेरे पास सारे सुबूत थे इसलिए जिला जज के पत्र के साथ इसकी शिकायत मैने प्रेस कौंसिल और जज के रवैए की शिकायत हाइकोर्ट को कर दी। अब देखिए किसने क्या कारर्वाई की--
संपादक महोदय-
उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि अगर तुम्हें पत्रकारिता का इतना ही शौक है तो अपना अखबार निकाल लो। (आज यह संपादक देश के नामी अखबार में एक्जीक्यूटिव एडीटर हैं)
प्रेस कौंसिल-
इस संस्था की तरफ से मुझे कोई जवाब ही नहीं मिला
हाइकोर्ट--
जिला जज को मुख्यालय में बुलाकर विजीलेंस की जिम्मेदारी दे दी गई।
और मेरे साथ क्या हुआ।
इस घटना के कुछ दिनों बाद ही मुझे रिपोर्टिंग से हटाकर डेस्क पर बिठा दिया गया। अब कोई बताए कि इन हालातों में मानवीय मूल्यों का कोई क्या करे। छाती पीटे या आहें ऽारे।

और अंत में.. .. .. .. ..
मेरे मित्र का एक सवाल है। मालिकों की मर्जी और उनके आर्थिक सरोकारों से संचालित हो रही मीडिया का क्यों न राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए। आज जब मीडिया मिशन न होकर प्रोफेशन हो गया है तो क्यों न उसे प्रोफेशन के नियम और कानूनों से संचालित किया जाए। आखिर पत्रकार आधा बटेर और आधा तीतर कब तक रहेगा। कम से कम तब सरकार ही का तो दवाब रहेगा। वैसे आपकी क्या राय है।