दुनिया में हर दस सेकेंड में एक व्यक्ति को नौकरी से निकाला जा रहा है। दिसंबर माह में ही अब तक 1.15 लाख लोग नौकरी से हाथ धो चुके हैं। भारत में भी हालत बेहद खराब हैं। यह 1930 के बाद मंदी की सबसे बड़ी मार है। 1930 को हम मं से किसी ने नहीं देखा और न ही उस समय की मंदी के व्यापक फलक की जानकारी है लेकिन कहा जाता है कि उस समय कई लोग भूख से मर गए। विशेषज्ञ कह रहे हैं कि मंदी की यह महादशा अभी जारी रहेगी। तमाम कंपनियों से बिना किसी कायदे और कानून के कर्मचारी और मजदूरों को निकाला जा रहा है। मजा यह है कि कोई भी संगठन उद्योगपतियों की इस बेहिसाब कार्रवाई पर उनसे हिसाब मांगता नहीं दिख रहा है। आखिर इसका मतलब क्या है।याद कीजिए 1995 के आसपास के दिन। दुनिया और खासतौर पर भारत बदल रहा था। ग्लोबलाइजेशन की गूंज। ऐसी कि कुछ दूसरा सूझ ही नहीं रहा था। आस आदमी को भी लग रहा था कि उसकी तरक्की की राह रूकी पड़ी है। इसके कुछ सालों में ही हर देशवासी के पास आसानी से पैसे की आवक भी शुरू हो गई। आसानी से नौकरी मिलने लगीं। न ही सरकारी प्राइवेट ही सही। तनख्वाह मोटी हुईं और आम वर्ग भी सुविधा संपन्न की श्रेणी में आने लगा। देश में अमीरों की संख्या में बढ़त्तरी हुई। गरीबी कितनी बढ़ी किसी को दिलचस्पी की नहीं रही। ठीक यही वह समय था जब मजदूर और कर्मचारियों ने ट्रेड यूनियनों को अव्यवहारिक प्रतिगामी बताना शुरू कर दिया। उद्योगपति में उसे देवता नजर आने लगे। ट्रेड यूनियनों की मौजूदगी को बकवास करार दिया जाने लगा। इस स्थिति पर निर्णायक चोट की पूंजीपतियों की हितैषी सरकारों ने। ऐसे नियम और कायदे बनाए गए जिससे ट्रेड यूनियन सिकुड़ती गईं। कानून का सहारा लेकर ऐसी व्याख्याएं की गईं जिससे हड़ताल जैसे मौलिक अधिकार को गैरजरूरी और गैरकानूनी बताया गया। ट्रेड यूनियन के नेता न केवल हताश हुए बल्कि कई जगह उनकी उपस्थिति ही खत्म हो गई। ऐसे हालात में जाहिर है कि इस मंदी में आम आदमी की टूटती कमर पर अगर धन और मुनाफे के भूखे उद्योगपति वार कर रहे हैं तो उसे रोकने वाला कोई नहीं है। विरोध तो छोडि़ए कामगार इतना असंगठित और बिखरा हुआ है कि उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। किंकर्तव्यविमूढञ की स्थिति में बेकार होने के अलावा कोई चारा ही नहीं है। सरकार है कि पहले ही छंटनी के रास्ते साफ कर चुकी है। ऐसे में प्रशासनिक सुधार आयोग जिसका स्वर कहता है कि अगर बॉस खुश नहीं तो नौकरी की सलामती नहीं। प्रशासनिक सुधार आयोग नाकारा नौकरशाही पर कितना अंकुश लगा पाएगा पता नहीं लेकिन इससे कर्मचारी और खासतौर पर महिला कर्मचारी के शोषण का एक रास्ता जरूर खुल जाएगा।
Sunday, 14 December 2008
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